भूमिका
यह मामला बिहार के पूर्णिया जिले में स्थित एक ज़मीन के टुकड़े पर स्वामित्व और कब्ज़े को लेकर दो पक्षों के बीच दशकों से चल रहे विवाद से जुड़ा है। इस केस में एक तरफ राम प्रसाद दास और उनके परिवार के अन्य सदस्य (अपीलकर्ता) हैं, जो अपने दादा द्वारा ली गई ज़मीन पर अधिकार का दावा कर रहे हैं, जबकि दूसरी ओर दीबाकर दास और उनके परिजन (प्रत्यर्थी) हैं, जो इस ज़मीन पर अपने पिता द्वारा खरीदी गई जमीन का हवाला देते हुए मालिकाना हक़ जताते हैं।
मामले की पृष्ठभूमि
अपीलकर्ता राम प्रसाद दास और अन्य ने 1990 में एक दीवानी मुकदमा (Title Suit No. 35/1990) दायर किया था, जिसमें उन्होंने अपनी ज़मीन पर कब्जे की पुष्टि और मालिकाना हक़ घोषित करने की मांग की। उन्होंने यह दावा किया कि यह ज़मीन उनके पूर्वज भौली दास को 1953 में तत्कालीन ज़मींदार मौलवी मोहम्मद हनीफ साहब से रैयती बंदोबस्ती में मिली थी। बंदोबस्ती के बाद, उन्होंने किराया अदा किया, उनके नाम जमाबंदी बनी और ज़मीन पर मकान भी बनाया गया।
ज़मीन के चारों तरफ की सीमाएं (Boundaries) स्पष्ट रूप से तय की गई थीं, और नगर पालिका सर्वेक्षण के दौरान भी अपीलकर्ताओं के नाम पर परचा (Record of Rights) जारी किया गया था, जो ज़मीन पर उनके कब्ज़े की पुष्टि करता है।
प्रत्यर्थियों का पक्ष
दूसरी ओर, दीबाकर दास और शिबाकर दास ने यह दावा किया कि उनके पिता सुखदेव दास ने 1973 में एक रजिस्टर्ड बिक्री पत्र (Sale Deed) के माध्यम से उपरोक्त ज़मीन या उसके आस-पास की ज़मीन खरीदी थी। उन्होंने यह भी कहा कि यह ज़मीन वर्षों से उनके कब्ज़े में है और वे इस पर खेती व बांस का रोपण करते आ रहे हैं।
उन्होंने ज़मीन के नगरपालिका रिकॉर्ड में गलती से अपीलकर्ताओं का नाम दर्ज होने के खिलाफ आपत्ति भी दाखिल की थी (Objection Case No. 515/646 of 1983)। उनके अनुसार, वे इस ज़मीन के वैध मालिक हैं और कम से कम 12 वर्षों से उस पर "कब्ज़ा द्वारा अधिकार" (Adverse Possession) के आधार पर अपना हक़ जमाते आ रहे हैं।
ट्रायल कोर्ट का निर्णय
प्रारंभिक न्यायालय (मुनसिफ, पूर्णिया) ने सभी मौखिक और दस्तावेज़ी साक्ष्यों के आधार पर अपीलकर्ताओं के पक्ष में फैसला सुनाया। अदालत ने माना कि:
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अपीलकर्ता ज़मीन पर लंबे समय से कब्जे में हैं।
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उन्होंने रैयती अधिकार के तहत ज़मीन हासिल की थी।
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ज़मीन पर घर बनाया और खेती की जा रही थी।
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नगरपालिका परचा और जमाबंदी उनके पक्ष में है।
निचली अपीलीय अदालत का उलट फैसला
प्रत्यर्थियों ने इस फैसले को चुनौती दी और 4वें अपर जिला न्यायाधीश, पूर्णिया के समक्ष अपील (Title Appeal No. 52/1992) दायर की। 1999 में अदालत ने:
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ट्रायल कोर्ट का निर्णय उलट दिया।
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यह कहा कि अपीलकर्ता ज़मीन के अधिग्रहण का वर्ष स्पष्ट रूप से साबित नहीं कर सके।
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उनकी याचिका में ज़मीन के प्लॉट नंबर में विरोधाभास बताया गया – प्लॉट नंबर 788, 473 और 474(Ka)/(Kha) को लेकर।
हालांकि अदालत ने यह स्वीकार किया कि अपीलकर्ता ज़मीन पर कब्जे में हैं, लेकिन केवल कब्ज़ा पर्याप्त नहीं माना और मामला खारिज कर दिया।
उच्च न्यायालय की पुनरावलोकन में भूमिका
राम प्रसाद दास और उनके परिवार ने पटना उच्च न्यायालय में दूसरी अपील (Second Appeal No. 535 of 1999) दायर की। न्यायमूर्ति खतीम रेजा ने इस मामले की गंभीरता से समीक्षा की और निम्न बिंदुओं पर विचार किया:
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क्या प्रथम अपीलीय अदालत ने ज़मीन के सर्वेक्षण रिकॉर्ड (पर्चा) को गलत तरीके से नकार दिया?
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क्या अपीलकर्ताओं के ज़मीन पर कब्ज़े की पुष्टि के बावजूद उनका दावा खारिज किया जा सकता है?
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क्या दस्तावेज़ी साक्ष्य जैसे कि जमाबंदी, किराया रसीद, रैयती बंदोबस्ती पर्याप्त नहीं हैं?
पटना उच्च न्यायालय का फैसला
न्यायालय ने विस्तृत विश्लेषण करते हुए यह पाया कि:
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अपीलकर्ता 1953 से ज़मीन पर काबिज़ थे, इसका समर्थन किराया रसीद और जमाबंदी से होता है।
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नगरपालिका सर्वेक्षण में ज़मीन उनके कब्ज़े में दिखाई गई है (Ext. 4)।
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जवाबी पक्ष ने जिन प्लॉट नंबरों पर आपत्ति जताई थी, उनमें यह ज़मीन शामिल नहीं थी।
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रैयती हक़ को पूर्व ज़मींदार द्वारा स्वीकार किया गया था, और बाद में राज्य सरकार द्वारा भी।
न्यायालय ने यह भी कहा कि केवल प्लॉट नंबर में हल्का-फुल्का भ्रम पूरे मुकदमे को खारिज करने का आधार नहीं बन सकता। विशेष रूप से तब, जब अन्य सभी दस्तावेज़ और गवाह अपीलकर्ताओं के कब्ज़े और अधिकार की पुष्टि करते हैं।
न्यायालय की विधिक टिप्पणियां
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स्थिर कब्ज़ा ही अधिकार है: सुप्रीम कोर्ट की मिसाल (Somnath Burman v. Dr. S.P. Raju) को उद्धृत करते हुए कोर्ट ने कहा कि ज़मीन पर लगातार, शांतिपूर्ण और सार्वजनिक कब्ज़ा स्वयं में एक अधिकार होता है, जब तक कि कोई वैध मालिक इसका खंडन न करे।
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रिकॉर्ड ऑफ राइट्स की सीमाएं: सर्वेक्षण पर्चा या खसरा दाखिल-खारिज दस्तावेज़ स्वयं में अधिकार नहीं देते, लेकिन कब्ज़े का प्रमाण होते हैं।
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रैयती हक़ की मान्यता: एक बार जब रैयती हक़ पूर्व ज़मींदार द्वारा स्वीकृत हो गया और राज्य द्वारा मान्य कर लिया गया, तो वह वैधानिक हो जाता है।
अंतिम निष्कर्ष
पटना उच्च न्यायालय ने प्रथम अपीलीय अदालत के 1999 के फैसले को निरस्त कर दिया और ट्रायल कोर्ट द्वारा 1992 में पारित फैसले को बहाल किया। यानी, अपीलकर्ताओं (राम प्रसाद दास और अन्य) को ज़मीन पर अधिकार और कब्ज़े की पुष्टि दी गई।
न्यायिक सिद्धांतों की पुष्टि
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Possessory Title is Good Title – यानी लंबे समय तक शांतिपूर्ण कब्ज़ा भी वैध मालिकाना हक़ बन सकता है।
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Zamindari Abolition के बाद रैयती हक़ को राज्य सरकार भी मान्यता देती है।
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खाता, खेसरा, पर्चा आदि दस्तावेज़ अगर मेल खाते हैं, तो वे स्वामित्व का सशक्त प्रमाण हैं।
निष्कर्ष
यह मामला सिर्फ एक ज़मीन के टुकड़े का नहीं बल्कि एक आम व्यक्ति के स्वाभिमान और अधिकार की लड़ाई का प्रतीक है। न्यायालय ने न केवल साक्ष्यों का विवेकपूर्ण परीक्षण किया, बल्कि ज़मीनी हक़ीक़त को प्राथमिकता देते हुए एक सशक्त निर्णय दिया, जो आने वाले समय में कई समान मामलों के लिए मिसाल बनेगा।
पूरा फैसला
पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें:
https://patnahighcourt.gov.in/viewjudgment/OSM1MzUjMTk5OSMxI04=-i3xtQRkdbtc=
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