"भूमि विवाद से हत्या तक: एक निर्णय की गहराई से पड़ताल"

 





प्रस्तावना

पटना उच्च न्यायालय ने मुरारी सिंह, शशि भूषण सिंह, गोविंद सिंह और मुकेश सिंह के विरुद्ध दर्ज हत्या और हत्या के प्रयास से जुड़े मामले में दोषसिद्धि को रद्द करते हुए सभी आरोपियों को संदेह का लाभ देते हुए बरी कर दिया। इस निर्णय में न्यायालय ने केवल साक्ष्यों की विश्वसनीयता पर गंभीर प्रश्न उठाए, बल्कि यह भी दर्शाया कि जब गवाही विरोधाभासी हो और परिस्थितियाँ संदेहास्पद हों, तो अभियोजन की कहानी पर आंख मूंदकर विश्वास नहीं किया जा सकता।

पृष्ठभूमि

यह मामला सीतामढ़ी जिले के मेजरगंज थाना क्षेत्र अंतर्गत वर्ष 2015 में हुई एक हत्या से संबंधित है। अभियोजन के अनुसार, 25 जनवरी 2015 को सरस्वती प्रतिमा विसर्जन के उपरांत मृतक पंकज कुमार सिंह किराने की दुकान से सामान लेकर घर लौट रहा था, तभी मुरारी सिंह ने अपने पिता शशि भूषण सिंह के इशारे पर उस पर गोली चला दी। साथ में मौजूद राहुल कुमार (पी.डब्ल्यू. 3) को भी गोविंद सिंह ने गोली मारी, जिससे वह घायल हुआ। मुकेश सिंह पर भी घटनास्थल पर गोलियां चलाकर भगदड़ मचाने का आरोप था।

मृतक के पिता कृष्णदेव सिंह (पी.डब्ल्यू. 4), जो कि मामले के सूचक भी थे, ने एफआईआर में इस घटना का कारण भूमि विवाद बताया और पूरे घटनाक्रम को परिवार के पुराने झगड़े से जोड़कर प्रस्तुत किया।

ट्रायल कोर्ट का निर्णय

सीतामढ़ी सत्र न्यायालय ने अभियोजन की गवाही को स्वीकार करते हुए सभी आरोपियों को आईपीसी की धारा 302, 307/34 और शस्त्र अधिनियम की धारा 27 के तहत दोषी करार दिया और उन्हें आजीवन कारावास की सजा सुनाई। इसके विरुद्ध आरोपियों ने पटना उच्च न्यायालय में अपील की।


उच्च न्यायालय का विश्लेषण

न्यायमूर्ति अशुतोष कुमार एवं न्यायमूर्ति आलोक कुमार पांडेय की खंडपीठ ने इस मामले में अभियोजन की कहानी को अत्यधिक संदेहास्पद पाया और उसके विभिन्न पक्षों का गहराई से विश्लेषण किया।

1. घटना का समय और शरीर में ऋगोर मॉर्टिस (rigor mortis)

पोस्टमार्टम रिपोर्ट के अनुसार मृतक के शरीर में सभी चार अंगों में ऋगोर मॉर्टिस पाया गया, जबकि घटना की कथित समयावधि (6:30 PM के बाद) और पोस्टमार्टम का समय (10:40 PM) के बीच का अंतर मात्र चार घंटे का था। जनवरी के ठंडे मौसम को देखते हुए यह स्थिति संदेह उत्पन्न करती है कि मृत्यु का समय कुछ और रहा होगा।

2. मेडिकल रिपोर्ट बनाम चश्मदीदों की गवाही

डॉक्टर ने बताया कि गोली पीछे से लगी और छाती के ऊपर से निकली, जिससे तिल्ली (spleen) भी फट गई थी। जबकि प्रत्यक्षदर्शी गवाहों का कहना है कि मृतक के पेट में गोली लगी। यह विरोधाभास अभियोजन की विश्वसनीयता पर सवाल खड़ा करता है।

3. एफआईआर दर्ज करने में देरी और आई.. की भूमिका

एफआईआर रात 9:30 बजे दर्ज हुई, जबकि पुलिस अधिकारी ने यह स्वीकार किया कि वह शाम 7 बजे ही घटनास्थल पर पहुंच गया था और एक खाली कारतूस बरामद कर लिया थाएफआईआर दर्ज होने से पहले। इस प्रकार, पुलिस की तत्परता और एफआईआर की देरी पर संदेह होना स्वाभाविक था।

4. पीड़ित को दो अस्पतालों में ले जाने की कहानी में विरोधाभास

राहुल (पी.डब्ल्यू. 3) ने गवाही दी कि वह और मृतक दोनों को पहले रीगा अस्पताल ले जाया गया, फिर सीतामढ़ी अस्पताल। परंतु रीगा अस्पताल के डॉक्टर (पी.डब्ल्यू. 8) ने केवल राहुल का ज़िक्र किया, मृतक का नहीं। इससे घटनास्थल और समय पर संदेह बढ़ता है।

5. मुख्य गवाहों की गवाही में विसंगति

  • पी.डब्ल्यू. 1 (सतीश कुमार) की गवाही जांच अधिकारी ने पहले नहीं ली थी।
  • पी.डब्ल्यू. 2 (पवन कुमार) की गवाही में मृतक को कहां गोली लगीयह स्पष्ट नहीं है।
  • पी.डब्ल्यू. 3 ने एफआईआर दर्ज करवाने वाले पी.डब्ल्यू. 4 की उपस्थिति का उल्लेख तक नहीं किया।
  • पी.डब्ल्यू. 4, मृतक का पिता और एफआईआर का सूचक, स्वयं विवादित गवाह था क्योंकि उसका अपने भाई (आरोपी शशि भूषण) से ज़मीन को लेकर गहरा झगड़ा था।

6. घटना के अन्य संभावित कारण

बचाव पक्ष ने यह तर्क भी दिया कि मृतक कथित रूप से "आजाद हिंद फौज" जैसी निजी मिलिशिया से जुड़ा था और पार्टी के पैसे गबन करने का आरोप था, जिससे उसकी हत्या आंतरिक विवाद में हो सकती है। यद्यपि यह एक संभावना मात्र है, परंतु अभियोजन की कमजोर कहानी ने इसे बल दिया।


न्यायालय का निष्कर्ष

न्यायालय ने स्पष्ट किया कि

यह सम्भव है कि हत्या किसी और लेन-देन में, किसी और समय और किसी अन्य प्रकार से हुई हो।

अतः साक्ष्यों में गंभीर संदेह, गवाहों की विरोधाभासी बातें, और पुलिस जांच में लापरवाही को देखते हुए उच्च न्यायालय ने सभी आरोपियों को संदेह का लाभ देते हुए बरी कर दिया।


निर्णय

  1. सभी दोष सिद्धियां रद्द की गईं।
  2. सभी आरोपियों को बरी किया गया।
  3. मुरारी सिंह को जेल से रिहा करने का आदेश।
  4. अन्य आरोपी पहले से जमानत पर थे, उनकी जमानत समाप्त की गई।

निष्कर्ष

यह फैसला एक बार फिर यह दर्शाता है कि भारतीय दंड प्रक्रिया में "संदेह का लाभ" (benefit of doubt) एक सशक्त सिद्धांत है। जब अभियोजन साक्ष्य देने में असमर्थ रहता है, विशेषकर जब निजी रंजिश हो, तो न्यायालय को हर परिस्थिति को गहराई से जांचना होता है। यह निर्णय केवल एक कानूनी दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण है, बल्कि यह दर्शाता है कि साक्ष्य की सच्चाई, एकतरफा गवाही की विश्वसनीयता, और न्यायिक विवेक कैसे अपराध और निर्दोष के बीच की रेखा खींचता है।

पूरा फैसला पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें: 

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