भूमिका
यह मामला एक सेवानिवृत्त ब्लॉक शिक्षा पदाधिकारी, श्री सुधेश्वर साह का है, जिनपर सेवा के दौरान रिश्वत लेने का आरोप लगा था। उनके खिलाफ विभागीय कार्यवाही के आधार पर 100% पेंशन जब्त कर ली गई थी। पटना हाईकोर्ट ने 4 दिसंबर 2023 को दिए गए निर्णय में पाया कि विभागीय कार्यवाही में गंभीर प्रक्रियागत त्रुटियां थीं और आरोपों के समर्थन में कोई साक्ष्य नहीं थे। न्यायालय ने दंड आदेश को रद्द करते हुए पुनः जांच के आदेश दिए।
मामले की पृष्ठभूमि
सुधेश्वर साह, जो उस समय समस्तीपुर जिले में ब्लॉक शिक्षा पदाधिकारी के पद पर कार्यरत थे, पर एक व्यक्ति (सुनील कुमार) ने शिकायत की कि उन्होंने और जिला कार्यक्रम पदाधिकारी ने एक स्कूल के उन्नयन के लिए अनुकूल रिपोर्ट देने के एवज में ₹50,000 की रिश्वत मांगी थी। 1 अप्रैल 2014 को निगरानी विभाग ने सुधेश्वर साह को ₹25,000 की रिश्वत लेते हुए रंगे हाथों गिरफ्तार कर लिया।
इसके बाद उनके खिलाफ प्राथमिकी दर्ज हुई और उसी दिन से उन्हें निलंबित कर दिया गया। बाद में जमानत मिलने पर उन्हें फिर से निलंबित कर दिया गया और विभागीय जांच शुरू हुई।
विभागीय जांच की प्रक्रिया और त्रुटियाँ
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जांच अधिकारी की रिपोर्ट: जांच अधिकारी ने अपनी रिपोर्ट में पाया कि पाँच में से चार आरोप सिद्ध नहीं हुए और पाँचवां आरोप (रिश्वत लेते हुए रंगे हाथ पकड़े जाने का) लंबित आपराधिक मुकदमे के कारण अभी ठोस निर्णय के योग्य नहीं है। यानी, उन्होंने सुधेश्वर साह को सभी आरोपों से बरी कर दिया।
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प्रशासन का विरोध: निदेशक, प्राथमिक शिक्षा ने जांच रिपोर्ट से असहमति जताते हुए पुनः दूसरा कारण बताओ नोटिस जारी किया, परंतु असहमति के उचित कारण नहीं दिए और ना ही कोई नया साक्ष्य प्रस्तुत किया।
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साक्ष्य की कमी: विभाग ने न तो कोई गवाह प्रस्तुत किया, न ही कोई दस्तावेज़ी प्रमाण न्यायालय या जांच अधिकारी के समक्ष पेश किए। शिकायतकर्ता, छापे के गवाह, या पुलिस अधिकारी किसी को भी पेश नहीं किया गया। यह पूरी जांच “नो एविडेंस” (साक्ष्यविहीन) मानी गई।
कानूनी तर्क और उच्च न्यायालय का विश्लेषण
न्यायमूर्ति अनिल कुमार सिन्हा ने अपने निर्णय में स्पष्ट किया कि विभागीय जांच एक quasi-judicial प्रक्रिया है जिसमें निष्पक्षता और पर्याप्त साक्ष्य आवश्यक हैं। उन्होंने कहा:
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प्राकृतिक न्याय का उल्लंघन: अभियुक्त को अपनी बात रखने का पर्याप्त अवसर नहीं दिया गया।
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Roop Singh Negi मामला उद्धृत: सर्वोच्च न्यायालय ने कहा है कि बिना साक्ष्य के सिर्फ एफआईआर या कबूलनामे के आधार पर दंड नहीं दिया जा सकता।
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Saroj Kumar Sinha केस: विभागीय अधिकारी को गवाह पेश कर दस्तावेज प्रमाणित करने होते हैं। केवल दस्तावेज सौंप देने से साक्ष्य सिद्ध नहीं होते।
कोर्ट का निष्कर्ष
न्यायालय ने माना कि:
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विभागीय जांच में कोई साक्ष्य नहीं था।
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अनुशासनात्मक अधिकारी ने असहमति के लिए कोई ठोस कारण नहीं दिया।
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इससे संपूर्ण जांच प्रक्रिया दूषित (vitiated) हो गई।
इसलिए, 100% पेंशन रोकने का आदेश, विभागीय जांच रिपोर्ट, और सेवा अपील में पुष्टि—all तीनों को रद्द कर दिया गया।
अदालत का निर्देश
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पुनः जांच: मामले को छह महीने के भीतर पूर्ण करने का आदेश दिया गया।
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अवसर का विस्तार: विभाग को नया आरोप पत्र, गवाहों और दस्तावेजों की सूची के साथ फिर से नोटिस जारी करने की अनुमति दी गई।
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अंतरिम राहत: जब तक जांच दोबारा पूरी नहीं होती, सुधेश्वर साह को अंतरिम पेंशन और अन्य सेवा निवृत्ति लाभ दिए जाएंगे।
निष्कर्ष
यह फैसला प्रशासनिक कार्यवाही में निष्पक्षता और प्रक्रिया की महत्ता को दर्शाता है। अदालत ने दो टूक कहा कि बिना पर्याप्त साक्ष्य के किसी को दोषी ठहराना न केवल कानून के विरुद्ध है बल्कि व्यक्ति के मौलिक अधिकारों का भी हनन है।
इस फैसले से यह स्पष्ट संदेश गया है कि भ्रष्टाचार जैसे गंभीर मामलों में भी यदि जांच प्रक्रिया दोषपूर्ण है और साक्ष्यविहीन है, तो दंडात्मक आदेश स्थायीत्व नहीं पा सकते।
पूरा फैसला
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https://patnahighcourt.gov.in/viewjudgment/MTUjMjk2MiMyMDIxIzEjTg==-fGWgfhd1cZs=