"पुरानी नौकरी का विवाद: 15 साल बाद कोर्ट का फैसला"

 

परिचय

यह लेख पटना उच्च न्यायालय के एक महत्वपूर्ण फैसले का सारांश प्रस्तुत करता है, जो अनुकंपा नियुक्ति के आधार पर नियुक्त एक कर्मचारी की सेवा समाप्ति से संबंधित है। न्यायालय ने इस मामले में निचली अदालत के आदेश और नियुक्ति प्रक्रिया से जुड़े विभिन्न कानूनी पहलुओं की जांच की।

मामले की पृष्ठभूमि

याचिकाकर्ता चंदन मल्लिक को उनके पिता की मृत्यु के बाद अनुकंपा के आधार पर नगर परिषद, पूर्णिया (अब नगर निगम, पूर्णिया) में सफाई कर्मचारी के रूप में नियुक्त किया गया था। उनके पिता नगर परिषद, पूर्णिया में सफाई कर्मचारी थे और 18 दिसंबर, 2001 को सेवा में रहते हुए उनकी मृत्यु हो गई थी। याचिकाकर्ता को शुरू में 1 सितंबर, 2006 को दैनिक वेतन भोगी के रूप में नियुक्त किया गया था, और बाद में 18 जून, 2007 को उन्हें अनुकंपा के आधार पर सफाई कर्मचारी के रूप में नियुक्ति पत्र जारी किया गया।

हालांकि, कुछ महीनों बाद, 31 दिसंबर, 2007 को नगर परिषद, पूर्णिया के तत्कालीन कार्यकारी अधिकारी ने याचिकाकर्ता की सेवाएं समाप्त कर दीं। इस आदेश में कहा गया कि याचिकाकर्ता की नियुक्ति अनुकंपा के आधार पर गलत थी, क्योंकि उसकी माँ पहले से ही नगर निगम, पूर्णिया में कार्यरत थी, और बिहार सरकार के कार्मिक और प्रशासनिक सुधार विभाग के 5 अक्टूबर, 1991 के परिपत्र के अनुसार, यदि पति और पत्नी दोनों सरकारी सेवा में हैं, तो किसी एक की मृत्यु के बाद उनके बच्चों को अनुकंपा नियुक्ति नहीं दी जा सकती है।

याचिकाकर्ता के तर्क

याचिकाकर्ता के अधिवक्ता ने तर्क दिया कि 31 दिसंबर, 2007 का सेवा समाप्ति आदेश नैसर्गिक न्याय के सिद्धांतों का उल्लंघन है, क्योंकि यह याचिकाकर्ता को अपना पक्ष रखने का कोई अवसर दिए बिना पारित किया गया था।

प्रतिवादियों के तर्क

प्रतिवादियों, यानी नगर निगम, पूर्णिया के अधिवक्ता ने तर्क दिया कि याचिकाकर्ता ने अधिकारियों से यह तथ्य छुपाया था कि उसकी माँ नगर निगम, पूर्णिया में कार्यरत थी, जबकि उसने अनुकंपा नियुक्ति के लिए आवेदन किया था। उन्होंने कहा कि नियमों के अनुसार, जब किसी कर्मचारी की मृत्यु होती है और उसके पति या पत्नी में से कोई पहले से ही सरकारी सेवा में है, तो उनके बच्चों को अनुकंपा नियुक्ति नहीं दी जा सकती है। उन्होंने यह भी तर्क दिया कि अनुकंपा नियुक्ति अधिकार के रूप में नहीं, बल्कि एक रियायत के रूप में है।

प्रतिवादियों के अधिवक्ता ने यह भी कहा कि याचिकाकर्ता ने 15 साल की देरी के बाद यह रिट याचिका दायर की थी, जो अस्वीकार्य है। उन्होंने इस संबंध में विभिन्न न्यायालयों के निर्णयों का हवाला दिया, जिनमें कहा गया है कि यदि कोई व्यक्ति बिना किसी उचित कारण के बहुत देर से अदालत का दरवाजा खटखटाता है, तो अदालत को ऐसे मामलों में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए।

उच्च न्यायालय का निर्णय

पटना उच्च न्यायालय ने दोनों पक्षों की दलीलों और मामले के रिकॉर्ड पर मौजूद सामग्रियों पर विचार करने के बाद, याचिका खारिज कर दी। न्यायालय ने माना कि याचिकाकर्ता ने 15 साल की अत्यधिक देरी के बाद अदालत का दरवाजा खटखटाया था, और इस देरी का कोई संतोषजनक कारण नहीं बताया था। न्यायालय ने इस संबंध में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा प्रतिपादित सिद्धांतों और "इक्विटी उन्हीं की सहायता करती है जो सतर्क हैं, न कि उनकी जो अपने अधिकारों पर सोते रहते हैं" की कानूनी कहावत का हवाला दिया।

अदालत ने यह भी पाया कि याचिकाकर्ता के मामले में कोई दम नहीं है, क्योंकि उसने इस तथ्य को छुपाया था कि उसकी माँ नगर निगम, पूर्णिया में कार्यरत थी, जब उसके पिता की मृत्यु हुई थी, जिसके कारण उसे 18 जून, 2007 को अवैध रूप से अनुकंपा नियुक्ति दी गई थी। अदालत ने कहा कि अधिकारियों द्वारा 31 दिसंबर, 2007 को जारी परिपत्र के अनुसार, जो यह निर्धारित करता है कि यदि पति और पत्नी दोनों सरकारी सेवा में हैं, तो किसी एक की मृत्यु के बाद उनके बच्चों को अनुकंपा नियुक्ति नहीं दी जा सकती है, यह नियुक्ति रद्द कर दी गई थी।

इसलिए, न्यायालय ने 31 दिसंबर, 2007 को नगर परिषद, पूर्णिया के तत्कालीन कार्यकारी अधिकारी द्वारा पारित आदेश में कोई अवैधता नहीं पाई और याचिका खारिज कर दी।

निष्कर्ष

पटना उच्च न्यायालय का यह फैसला अनुकंपा नियुक्ति से संबंधित मामलों में कानूनी प्रक्रियाओं और नियमों के पालन के महत्व को दर्शाता है। न्यायालय ने इस बात पर जोर दिया कि अनुकंपा नियुक्ति का दावा करने वाले व्यक्तियों को सभी प्रासंगिक तथ्यों का खुलासा करना चाहिए और यदि वे लंबे समय तक अपने अधिकारों का दावा नहीं करते हैं तो अदालत से राहत की उम्मीद नहीं करनी चाहिए।

पूरा फैसला पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें:

https://patnahighcourt.gov.in/viewjudgment/MTUjMTc2NTYjMjAyMiMxI04=-ShdAuzlzBo4=