"दलपतियों की नियुक्ति पर न्यायिक मंथन: पंचायत सेवक पद पर समाहित करने की माँग और न्यायालय का रुख

 



भूमिका

यह मामला बिहार के विभिन्न दलपतियों द्वारा पंचायत सेवक (अब पंचायत सचिव) के पद पर समाहित करने की माँग से जुड़ा है। याचिकाकर्ताओं का दावा था कि उन्हें पहले पंचायत स्तर पर दलपति के रूप में नियुक्त किया गया था और उन्होंने आवश्यक प्रशिक्षण भी प्राप्त किया है। इस आधार पर, वे पंचायत सचिव के पद पर समाहित किए जाने की माँग कर रहे थे। हालांकि, सरकार की ओर से यह तर्क दिया गया कि उपलब्ध पद सीमित हैं और पश्चिम चम्पारण जिले में कोई रिक्ति नहीं है। इस संदर्भ में पटना उच्च न्यायालय ने महत्त्वपूर्ण निर्णय दिया।

मामले की पृष्ठभूमि

अभिय appellants, जो कि पश्चिम चम्पारण जिले के विभिन्न ग्राम पंचायतों में दलपति के रूप में कार्यरत थे, ने यह याचिका दायर की थी। वे सभी न्यूनतम आवश्यक शैक्षणिक योग्यता (मैट्रिकुलेशन) रखते थे और कुछ तो उच्च योग्यता से युक्त थे। उन्हें ब्राम्बे, राँची स्थित केंद्रीय प्रशिक्षण संस्थान में प्रशिक्षित भी किया गया था।

राज्य सरकार ने 24 जून 1989 को एक निर्देश जारी किया था जिसमें कहा गया था कि पंचायत सेवक की नियुक्ति केवल प्रशिक्षित दलपतियों से की जाएगी। आरक्षित वर्ग के लिए प्रशिक्षण की अवधि में छूट दी गई थी और उम्र सीमा में भी रियायत प्रदान की गई थी।

पिछली कार्यवाही और अदालती आदेश

दलपतियों की नियुक्ति को लेकर पहले भी कई मुकदमे दर्ज हुए थे, जैसे CWJC No. 7652/2002 और CWJC No. 15200/2004, जिनमें न्यायालय ने उनके पक्ष में निर्णय दिया था। राज्य सरकार ने उच्च न्यायालय के निर्णय को चुनौती दी थी, लेकिन वह असफल रही। बाद में अवमानना याचिका दायर होने पर सरकार ने जिलाधिकारियों को आदेश दिया कि वे इन निर्णयों का पालन करें।

इसके बावजूद याचिकाकर्ताओं की नियुक्ति नहीं हो सकी। उनका तर्क था कि 69 पद पंचायत सचिव के रिक्त थे और उनमें से अधिकतर आरक्षित वर्ग के लोगों से भर दिए गए, जो आरक्षण नीति से अधिक हैं। उन्होंने अनुसूचित जाति के लिए 12 और पिछड़े वर्गों के लिए 8 अतिरिक्त पद भरने को चुनौती दी।

राज्य का पक्ष

राज्य सरकार ने यह स्पष्ट किया कि पश्चिम चम्पारण जिले में कोई अतिरिक्त पद सृजित नहीं किए गए हैं और वहाँ पहले से ही अधिक संख्या में पंचायत सेवक कार्यरत हैं। उन्होंने यह भी बताया कि पूरे बिहार में केवल 531 पद दलपतियों के समाहितीकरण के लिए स्वीकृत किए गए हैं, जो कि पहले 843 थे पर झारखंड के विभाजन के बाद घटकर 531 रह गए।

राज्य ने "सुभाष चंद्र शुक्ल बनाम बिहार राज्य" (2009) के निर्णय का हवाला दिया, जिसमें कहा गया था कि केवल उन्हीं 531 पदों पर दलपतियों की नियुक्ति संभव है, और यह अधिकार नहीं बल्कि एक विशिष्ट नीति निर्णय है।

एकल पीठ का निर्णय

न्यायमूर्ति ने यह स्वीकार किया कि याचिकाकर्ता योग्य हो सकते हैं, लेकिन यदि जिले में कोई पद रिक्त नहीं है, तो कोई "मैंडेटरी नियुक्ति" नहीं दी जा सकती। उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि दलपति की नियुक्ति एक जिला स्तरीय पद है और इसे अन्य जिलों में स्थानांतरित नहीं किया जा सकता।

उन्होंने यह भी कहा कि दलपति और पंचायत सचिव के कर्तव्यों में मूलभूत अंतर है। दलपति एक सामान्यवॉच एंड वार्डप्रकृति का पद है, जबकि पंचायत सचिव को व्यापक प्रशासनिक जिम्मेदारियाँ निभानी होती हैं। इसलिए दलपतियों को पंचायत सचिव के समकक्ष नहीं माना जा सकता।

खंडपीठ का निर्णय

मुख्य न्यायाधीश के विनोद चंद्रन और न्यायमूर्ति पार्थ सारथी की खंडपीठ ने एकल पीठ के निर्णय को सही ठहराया। उन्होंने स्पष्ट किया कि दलपतियों को पंचायत सचिव के रूप में नियुक्त करना विधायिका की नीतिगत मंशा पर निर्भर करता है, और यह कोई मौलिक या संवैधानिक अधिकार नहीं है।

अदालत ने यह भी स्वीकार किया कि दलपतियों को केवल उन्हीं 531 पदों में से समाहित किया जा सकता है जो राज्य सरकार द्वारा सृजित किए गए हैं। इसके अतिरिक्त, पश्चिम चम्पारण जिले में ऐसा कोई रिक्त पद नहीं है। इसलिए याचिकाकर्ताओं की माँग नीतिगत और व्यावहारिक दोनों आधारों पर अस्वीकार्य है।

महत्वपूर्ण निष्कर्ष

  1. नीतिगत निर्णय का दायरा: दलपतियों की नियुक्ति पंचायत सचिव के रूप में एक अधिकार नहीं, बल्कि एक नीतिगत निर्णय था, जिसे सरकार अपने विवेक से लागू कर सकती है।
  2. सीमित पदों की सीमा: केवल 531 पदों को दलपतियों के लिए आरक्षित किया गया था, जो विशेष रूप से झारखंड विभाजन के बाद तय किए गए थे।
  3. पद की प्रकृति में अंतर: दलपति और पंचायत सचिव दोनों की भूमिका में ज़मीन-आसमान का अंतर है। इसलिए स्वतः नियुक्ति का दावा तर्कसंगत नहीं।
  4. क्षेत्रीय सीमा: दलपति जिला स्तर का पद है, और उसकी नियुक्ति भी उसी जिले तक सीमित रहनी चाहिए।
  5. आरक्षण विवाद: याचिकाकर्ताओं द्वारा उठाए गए आरक्षण संबंधी विवाद को कोर्ट ने मौलिक मुद्दा नहीं माना क्योंकि मुख्य बाधा रिक्त पदों की अनुपस्थिति थी।

न्यायिक महत्व

यह निर्णय यह दर्शाता है कि अदालत केवल न्यायिक आदेशों के अनुपालन की स्थिति में हस्तक्षेप करती है, कि नीति निर्माण में। यह मामला यह भी स्पष्ट करता है कि राज्य सरकारों की प्रशासनिक नीतियाँ, यदि न्यायालय द्वारा उल्लंघन नहीं मानी जातीं, तो उन्हें यथावत माना जाएगा।

निष्कर्ष

पटना उच्च न्यायालय ने इस अपील को खारिज करते हुए स्पष्ट कर दिया कि दलपतियों की नियुक्ति पंचायत सचिव के पद पर एक मौलिक अधिकार नहीं है। इस प्रकार, इस निर्णय ने दलपतियों और सरकार के बीच लंबे समय से चल रहे विवाद को न्यायिक दृष्टिकोण से संतुलित रूप में निपटाया। यह निर्णय केवल प्रशासनिक विवेक पर न्यायिक स्वीकृति की पुष्टि करता है, बल्कि यह भी संकेत देता है कि सीमित संसाधनों और पदों के संदर्भ में नीतियों का पालन आवश्यक है।

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