"तीन दशकों की सेवा के बाद भी पेंशन से वंचित? पटना उच्च न्यायालय का न्यायोचित निर्णय"

 


1.     

भूमिका
पटना उच्च न्यायालय ने अपने निर्णय दिनांक 8 फरवरी 2023 में सुभाष ठाकुर बनाम बिहार राज्य एवं अन्य मामले में एक सेवानिवृत्त कर्मी को उनके पेंशन तथा अन्य सेवानिवृत्त लाभ दिलाने हेतु महत्वपूर्ण आदेश पारित किया। यह निर्णय उन हजारों कर्मचारियों के लिए मिसाल बन सकता है, जिनकी सेवाएं वर्षों तक अनियमित स्थिति में ली गईं लेकिन उन्हें उनके सेवा लाभों से वंचित रखा गया।


मामले की पृष्ठभूमि

सुभाष ठाकुर, भौतिकी विभाग में के.वी.एस कॉलेज, उच्चैठ, बेनीपट्टी, मधुबनी में प्रयोगशाला प्रभारी के पद पर कार्यरत थे। उन्होंने 17 मई 1979 को कार्यभार ग्रहण किया और 31 जनवरी 2016 को 62 वर्ष की आयु में सेवानिवृत्त हुए। उन्होंने यह याचिका इस आधार पर दायर की थी कि उन्हें पेंशन, ग्रेच्युटी और अवकाश नकदीकरण का भुगतान नहीं किया गया है।


मुख्य विवाद

याचिकाकर्ता की नियुक्ति 1979 में हुई थी, लेकिन उनका नियमितीकरण 11 अगस्त 2012 को हुआ। राज्य सरकार और विश्वविद्यालय का तर्क था कि चूंकि उनकी नियमित नियुक्ति 2005 के बाद हुई है, इसलिए उन्हें नए अंशदायी पेंशन योजना (NPS) के अंतर्गत लाया गया, और पुराने पेंशन नियम लागू नहीं होंगे। जबकि याचिकाकर्ता का कहना था कि वे 1979 से लगातार कार्यरत रहे हैं, अतः उन्हें पूरी सेवा अवधि के आधार पर पुराने पेंशन योजना के अंतर्गत लाभ मिलना चाहिए।


न्यायालय का अवलोकन

  1. सेवा की निरंतरता और नियमितीकरण की देरी
    न्यायालय ने स्पष्ट रूप से पाया कि याचिकाकर्ता की सेवा 1979 से निरंतर रही है, जिसे विश्वविद्यालय और राज्य सरकार ने कभी खंडित नहीं किया। यद्यपि 1992 में वेतन भुगतान को स्थगित किया गया था, फिर भी उन्हें सेवा से हटाया नहीं गया और वे कार्य करते रहे।
  2. विलंबित विज्ञापन और नियुक्ति प्रक्रिया
    पहले के एक आदेश में, उच्च न्यायालय ने 1997 में ही विश्वविद्यालय को 6 माह के भीतर नियमित नियुक्ति प्रक्रिया अपनाने का निर्देश दिया था। इसके बावजूद विश्वविद्यालय ने 5 वर्षों की देरी से 2002 में विज्ञापन जारी किया और 2012 में जाकर नियुक्ति प्रक्रिया पूरी की।

न्यायालय ने कहा कि यह देरी याचिकाकर्ता की नहीं, बल्कि विश्वविद्यालय और राज्य की थी। अतः याचिकाकर्ता इस देरी के लिए जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता।

  1. नियमों का अधीनस्थ अनुप्रयोग अस्वीकार्य
    न्यायालय ने Md. Kayumuddin Ansari और Ram Janam Paswan मामलों का हवाला देते हुए कहा कि यदि कोई पद पुरानी सेवा शर्तों के अंतर्गत विज्ञापित हुआ है, तो नियुक्ति के विलंब से नई सेवा शर्तें लागू नहीं की जा सकतीं।
  2. “Qualifying Service” की परिभाषा
    बिहार राज्य विश्वविद्यालय अधिनियम, 1976 की धारा 14 के अनुसारयोग्य सेवामें वह सेवा शामिल होती है जो अस्थायी या कार्यवाहक नियुक्ति के रूप में निरंतर रूप से दी गई हो और बाद में स्थायी नियुक्ति में परिणत हुई हो। चूंकि याचिकाकर्ता की सेवा बिना किसी विघटन के 1979 से चलती रही और 2012 में नियमित की गई, अतः उनकी पूरी सेवा योग्यता की श्रेणी में आती है।
  3. उच्चतम न्यायालय के दृष्टांत
    सुप्रीम कोर्ट द्वारा Netram Sahu बनाम छत्तीसगढ़ राज्य मामले में यह स्पष्ट किया गया था कि यदि कोई कर्मचारी लंबे समय तक कार्य करता है और बाद में नियमित होता है, तो उसकी पूरी सेवा को लाभों के लिए गिना जाना चाहिए।

अंतिम निर्णय

न्यायालय ने कहा कि:

  • याचिकाकर्ता को उनके संपूर्ण सेवा काल को ध्यान में रखते हुए पुराने पेंशन योजना के अंतर्गत सभी सेवा निवृत्ति लाभ (पेंशन, ग्रेच्युटी, अवकाश नकदीकरण) मिलेंगे।
  • यह गणना 9 मार्च 1990 से मानी जाएगी, जब प्रयोगशाला प्रभारी का पद राज्य सरकार द्वारा स्वीकृत किया गया था।
  • विश्वविद्यालय और राज्य सरकार को आदेश दिया गया कि वे तीन माह के भीतर याचिकाकर्ता को सभी देय लाभों का भुगतान सुनिश्चित करें।

न्याय की भावना और भविष्य की दिशा

इस निर्णय ने यह स्थापित किया कि कोई भी संस्था, अपने द्वारा की गई प्रशासनिक त्रुटियों या विलंबों का बोझ कर्मचारी पर नहीं डाल सकती। यदि कर्मचारी ने ईमानदारी से लंबे समय तक सेवा दी है और उसे अवैधानिक रूप से अनदेखा किया गया है, तो न्यायालय उसकी सेवा के हर पल का मूल्यांकन कर सकता है।


निष्कर्ष

यह निर्णय न्याय की भावना को प्रदर्शित करता है। यह एक सकारात्मक संकेत है उन सभी कर्मचारियों के लिए, जो वर्षों तक सेवा देने के बावजूद केवल प्रशासनिक विलंब या लापरवाही के कारण अपने वैध लाभों से वंचित हो जाते हैं। सुभाष ठाकुर जैसे कर्मचारी केवल इस देश की शैक्षणिक नींव हैं, बल्कि ऐसे निर्णयों से उन्हें उनका न्याय भी मिल रहा है।

पूरा फैसला पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें:

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