भूमिका:
यह मामला एक आयुर्वेदिक डॉक्टर, डॉ. संजय कुमार श्रीवास्तव, द्वारा दायर रिट याचिका से संबंधित है, जिनकी नियुक्ति बिहार सरकार के अधीन चिकित्सा पद पर नहीं हो सकी, जबकि वे G.A.M.S. (Graduate of Ayurvedic Medicine and Surgery) डिग्रीधारी हैं। उन्होंने आरोप लगाया कि बिहार सरकार ने मनमाने तरीके से उन्हें योग्य नहीं माना और उन्हें चिकित्सा पद से वंचित कर दिया, जबकि अन्य समान योग्यता वाले अभ्यर्थियों को सेवा में रखा गया।
पृष्ठभूमि:
डॉ. संजय कुमार श्रीवास्तव ने "Institute of Medical Sciences, Banaras Hindu University" (BHU), वाराणसी से GAMS की डिग्री 1987 में प्राप्त की थी। यह डिग्री उस समय "आयुर्वेदाचार्य" के समकक्ष मानी जाती थी। BHU को UGC (University Grants Commission) द्वारा मान्यता प्राप्त विश्वविद्यालय माना गया है और इसकी डिग्रियाँ आम तौर पर देश भर में मान्य होती हैं।
याचिकाकर्ता ने "बिहार लोक सेवा आयोग" के तहत आयोजित एक चयन प्रक्रिया में भाग लिया था, लेकिन उन्हें यह कहकर अयोग्य ठहरा दिया गया कि उनकी डिग्री "मान्य संस्थान" से प्राप्त नहीं है। यह निर्णय उन्हें सेवा से बाहर रखने का मुख्य आधार बना।
याचिकाकर्ता के तर्क:
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डिग्री की मान्यता: BHU एक केंद्रीय विश्वविद्यालय है और इसकी डिग्रियाँ UGC द्वारा मान्य हैं। Institute of Medical Sciences में दी जाने वाली GAMS डिग्री आयुर्वेद चिकित्सा में स्नातक की स्तर की पढ़ाई है जो उस समय मान्य थी।
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पूर्व नियुक्तियाँ: कई अन्य उम्मीदवारों को इसी डिग्री के आधार पर नियुक्त किया गया है, जबकि उन्हें अयोग्य ठहराया गया है। यह समानता के अधिकार (Article 14) का उल्लंघन है।
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मौखिक रूप से सेवा की गई: याचिकाकर्ता को पहले कुछ समय के लिए नियुक्त किया गया था और वे अपनी सेवाएँ दे चुके थे। बाद में उन्हें बिना स्पष्ट कारण के हटा दिया गया।
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प्राकृतिक न्याय का उल्लंघन: याचिकाकर्ता को कोई सुनवाई का अवसर नहीं दिया गया और उनकी अर्हता पर विचार करते समय उचित प्रक्रिया का पालन नहीं किया गया।
प्रतिवादी पक्ष (बिहार सरकार) के तर्क:
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मूल्यांकन समिति की रिपोर्ट: समिति ने यह पाया कि BHU का GAMS कार्यक्रम उस समय Central Council of Indian Medicine (CCIM) के द्वारा मान्य नहीं था, अतः इसे "मान्यता प्राप्त संस्थान" नहीं माना जा सकता।
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अनिवार्य पंजीकरण: बिहार राज्य में चिकित्सा पदों के लिए बिहार राज्य आयुर्वेद चिकित्सा परिषद में वैध पंजीकरण अनिवार्य है। याचिकाकर्ता ने सेवा हेतु आवेदन के समय पंजीकरण प्रमाणपत्र प्रस्तुत नहीं किया।
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अधिसूचना का पालन: सरकार ने सेवा में नियुक्ति के लिए स्पष्ट दिशा-निर्देश निर्धारित किए हैं और याचिकाकर्ता उनकी पूर्ति नहीं कर सके।
मुख्य कानूनी प्रश्न:
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क्या BHU से प्राप्त GAMS डिग्री को राज्य सरकार द्वारा "मान्यता प्राप्त डिग्री" माना जाना चाहिए?
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क्या याचिकाकर्ता के साथ भेदभाव किया गया, जबकि अन्य समान डिग्रीधारी उम्मीदवारों को सेवा में रखा गया?
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क्या याचिकाकर्ता की नियुक्ति रद्द करने की प्रक्रिया उचित और न्यायसंगत थी?
न्यायालय का विश्लेषण:
न्यायमूर्ति पवनेश्वर नाथ राय और न्यायमूर्ति पार्थ सारथी की खंडपीठ ने निम्नलिखित बिंदुओं पर विचार किया:
1. मान्यता का प्रश्न:
न्यायालय ने माना कि BHU एक केंद्रीय विश्वविद्यालय है, और 1987 में GAMS कार्यक्रम उसमें संचालित था। उस समय Central Council of Indian Medicine (CCIM) ने संभवतः इस पाठ्यक्रम को विशेष रूप से मान्यता नहीं दी थी, लेकिन यह विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (UGC) द्वारा मान्यता प्राप्त था।
2. अन्य मामलों से तुलना:
न्यायालय ने याचिकाकर्ता द्वारा प्रस्तुत उदाहरणों की समीक्षा की, जहाँ समान योग्यता वाले अन्य उम्मीदवारों को सेवा में रखा गया था। यह अंतर व्यवहार Article 14 (समानता का अधिकार) का उल्लंघन प्रतीत होता है।
3. प्राकृतिक न्याय का सिद्धांत:
याचिकाकर्ता को न तो पहले से कोई स्पष्ट सूचना दी गई, न ही उन्हें अपनी बात रखने का मौका मिला। यह निर्णय 'Audi Alteram Partem' के सिद्धांत के खिलाफ था।
4. सेवा में कार्यकाल और अनुभव:
चूंकि याचिकाकर्ता ने कुछ समय के लिए सेवा दी थी और कोई शिकायत भी नहीं थी, यह तथ्य भी उनके पक्ष में गया।
न्यायालय का निर्णय:
अदालत ने बिहार सरकार के निर्णय को अनुचित और पक्षपातपूर्ण माना। न्यायालय ने यह निर्देश दिया:
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याचिकाकर्ता की डिग्री को मान्य माना जाए, क्योंकि BHU की डिग्रियाँ आमतौर पर पूरे देश में मान्य हैं।
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याचिकाकर्ता को सेवा में शामिल करने के योग्य माना जाए, बशर्ते वे अन्य औपचारिकताओं को पूरा करें।
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सरकार को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि भविष्य में ऐसी स्थिति में सभी उम्मीदवारों को समान अवसर और स्पष्ट प्रक्रिया दी जाए।
महत्त्वपूर्ण टिप्पणियाँ:
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यह निर्णय उस वर्ग के लिए आशा की किरण है जो पुरानी डिग्रियों के कारण वर्तमान में सेवा से वंचित किए जा रहे हैं।
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न्यायालय ने प्रशासनिक पारदर्शिता, समानता और प्राकृतिक न्याय की अवधारणाओं को बल दिया।
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यह मामला तकनीकी मान्यता और व्यावहारिक अर्हता के बीच सामंजस्य स्थापित करता है।
निष्कर्ष:
यह मामला केवल एक व्यक्ति की सेवा विवाद से संबंधित नहीं है, बल्कि यह एक व्यापक समस्या को उजागर करता है – जहाँ प्रशासनिक प्रक्रियाएँ पुराने शैक्षणिक ढांचे और वर्तमान मान्यताओं के बीच तालमेल नहीं बैठा पातीं। पटना उच्च न्यायालय ने एक साहसी निर्णय देकर न केवल याचिकाकर्ता को न्याय दिया, बल्कि भविष्य में समान विवादों के लिए एक मार्गदर्शक सिद्धांत भी स्थापित किया।
पूरा फैसला
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https://patnahighcourt.gov.in/viewjudgment/MTUjNTg1OCMyMDIzIzEjTg==-b2EIa4wz9sw=