"पुराने संपत्ति विवाद में नया मोड़: न्यायालय का फैसला"

 


परिचय

यह लेख पटना उच्च न्यायालय के एक महत्वपूर्ण फैसले का सारांश प्रस्तुत करता है, जो दीना नाथ प्रसाद और जय प्रकाश सिंह व अन्य के बीच संपत्ति के स्वामित्व को लेकर चल रहे विवाद से संबंधित है। इस मामले में, न्यायालय ने निचली अदालत के उस आदेश की समीक्षा की, जिसमें 1946 के एक पुराने मुकदमे में पारित समझौता डिक्री में संशोधन करने की अनुमति दी गई थी। न्यायालय ने इस मामले से जुड़े विभिन्न कानूनी पहलुओं और प्रक्रियाओं पर विचार किया।

मामले की पृष्ठभूमि

यह मामला टाइटल सूट संख्या 32/1946 से संबंधित है, जो संपत्ति के विभाजन से जुड़ा था। 24 फरवरी, 1951 को, इस मुकदमे का निपटारा एक समझौते के माध्यम से किया गया था, और अदालत ने एक समझौता डिक्री पारित की थी। इस डिक्री के अनुसार, मुकदमे में शामिल पक्षों को उनकी सहमति के अनुसार भूमि का स्वामित्व दिया गया था।

हालांकि, विवाद तब उत्पन्न हुआ जब खाता संख्या 78, प्लॉट संख्या 632, क्षेत्रफल 2 कट्ठा 10 धूर, जो मूल रूप से प्रतिवादी संख्या 11, कौशल किशोर नारायण को आवंटित किया गया था, के स्वामित्व को लेकर कुछ दावे किए गए। कौशल किशोर नारायण की मृत्यु के बाद, यह संपत्ति उनके दो भाइयों, प्रकाश प्रसाद सिंह (प्रतिवादी संख्या 12) और अशोक प्रसाद सिंह (प्रतिवादी संख्या 14) के हिस्से में आई। लेकिन, प्रतिवादी संख्या 3 और 4 ने, जो कौशल किशोर नारायण के भाई और भाभी थे, ने 16 मार्च, 2009 को याचिकाकर्ता के पक्ष में एक पंजीकृत बिक्री विलेख निष्पादित किया और उसे संपत्ति का कब्जा दे दिया।

इस बिक्री विलेख को चुनौती देते हुए, टाइटल सूट संख्या 32/1946 के वादी संख्या 2 के चचेरे भाई ने टाइटल सूट संख्या 169/2013 दायर किया, जिसमें दावा किया गया कि याचिकाकर्ता के विक्रेताओं को बिक्री विलेख निष्पादित करने का कोई अधिकार नहीं है, क्योंकि उन्हें यह भूमि उपहार विलेख के माध्यम से प्राप्त हुई थी।

निचली अदालत का आदेश

टाइटल सूट संख्या 169/2013 के लंबित रहने के दौरान, मूल प्रतिवादी संख्या 5 ने 3 मार्च, 2016 को धारा 152 और धारा 151 के तहत एक याचिका दायर की, जिसमें टाइटल सूट संख्या 32/1946 में पारित समझौता डिक्री में संशोधन करने और अनुसूची 5 (ई) से प्लॉट संख्या 632 को हटाने की प्रार्थना की गई। निचली अदालत ने 5 अप्रैल, 2016 को इस याचिका को स्वीकार कर लिया, जिसके कारण यह मामला पटना उच्च न्यायालय में आया।

याचिकाकर्ता के तर्क

याचिकाकर्ता की ओर से पेश हुए वरिष्ठ अधिवक्ता श्री राघिब अहसन ने तर्क दिया कि निचली अदालत का आदेश पूरी तरह से अवैध है और कानून के स्थापित नियमों का पालन किए बिना पारित किया गया है। उन्होंने कहा कि निचली अदालत ने 3 मार्च, 2016 की याचिका पर ध्यान नहीं दिया, जो न तो सत्यापित थी और न ही शपथ पत्र पर थी। इसके अलावा, पार्टियों को कोई नोटिस जारी किए बिना और नैसर्गिक न्याय के सिद्धांतों का उल्लंघन करते हुए आदेश पारित किया गया।

याचिकाकर्ता के अधिवक्ता ने इस बात पर भी जोर दिया कि निचली अदालत ने याचिकाकर्ता के हितों को ध्यान में नहीं रखा, जो संपत्ति के खरीदार होने के नाते, संशोधन से प्रतिकूल रूप से प्रभावित हो रहा था। उन्होंने कहा कि याचिकाकर्ता को इस आदेश के बारे में तब पता चला जब टाइटल सूट संख्या 169/2013 के वादी ने 2 जून, 2017 को संशोधन के आधार पर एक याचिका दायर की, जिसे निचली अदालत ने 1 अगस्त, 2017 को अनुमति दे दी।

प्रतिवादी के तर्क

प्रतिवादी संख्या 5 की ओर से पेश हुए वरिष्ठ अधिवक्ता श्री जे. एस. अरोड़ा ने तर्क दिया कि निचली अदालत के आदेश में कोई कमी नहीं है। उन्होंने कहा कि याचिकाकर्ता को नोटिस जारी करने या उसे सुनने की कोई आवश्यकता नहीं थी, क्योंकि उसके पास कोई अधिकार नहीं है और वह मूल मुकदमे का पक्षकार नहीं था। उन्होंने यह भी कहा कि अन्य पक्षों को नोटिस दिया गया था और इस मामले में सुना गया था।

प्रतिवादी के अधिवक्ता ने इस बात पर जोर दिया कि निचली अदालत ने मूल प्रतिवादी संख्या 5 द्वारा दायर याचिका को सही ढंग से अनुमति दी थी और गैर-मौजूद भूमि के संबंध में डिक्री के कारण होने वाली अस्पष्टता से बचने के लिए यह संशोधन आवश्यक था।

उच्च न्यायालय का निर्णय

पटना उच्च न्यायालय ने दोनों पक्षों की दलीलों पर विचार करने और रिकॉर्ड की जांच करने के बाद, निचली अदालत के आदेश में गंभीर कमियां पाईं। न्यायालय ने पाया कि समझौता डिक्री में संशोधन के लिए दायर याचिका पर आदेश पारित करते समय संबंधित पक्षों को नोटिस नहीं दिया गया था।

न्यायालय ने इस बात पर जोर दिया कि जब याचिकाकर्ता मामले में आया और एक आवश्यक पक्षकार बन गया, तो निचली अदालत को यह विचार करना चाहिए था कि उसके अधिकारों पर क्या प्रभाव पड़ेगा। इसके अतिरिक्त, संशोधन की मांग वाली याचिका न तो सत्यापित थी और न ही शपथ पत्र पर थी, जिसे न्यायालय ने एक गंभीर चूक माना।

उपरोक्त कारणों को ध्यान में रखते हुए, उच्च न्यायालय ने 5 अप्रैल, 2016 को टाइटल सूट संख्या 32/1946 में पारित निचली अदालत के आदेश को रद्द कर दिया और मामले को निचली अदालत में पुनर्विचार के लिए भेज दिया। उच्च न्यायालय ने निचली अदालत को निर्देश दिया कि वह संबंधित पक्षों को नोटिस जारी करे और उन्हें सुनने के बाद एक उचित आदेश पारित करे।

टाइटल सूट संख्या 169/2013 से संबंधित आदेश

इसी तरह, उच्च न्यायालय ने टाइटल सूट संख्या 169/2013 में पारित निचली अदालत के 1 अगस्त, 2017 के आदेश को भी रद्द कर दिया। यह आदेश मूल रूप से टाइटल सूट संख्या 32/1946 में पारित संशोधन आदेश पर आधारित था, जिसे उच्च न्यायालय ने रद्द कर दिया था।

निष्कर्ष

पटना उच्च न्यायालय का यह फैसला संपत्ति विवादों में कानूनी प्रक्रियाओं के महत्व को दर्शाता है। न्यायालय ने इस बात पर जोर दिया कि अदालती आदेशों में संशोधन करते समय सभी संबंधित पक्षों को सुनना और नैसर्गिक न्याय के सिद्धांतों का पालन करना आवश्यक है। यह निर्णय संपत्ति के स्वामित्व से जुड़े मामलों में कानूनी अधिकारों की रक्षा के लिए एक महत्वपूर्ण मिसाल कायम करता है।

पूरा फैसला पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें:

https://patnahighcourt.gov.in/viewjudgment/NDQjMzgyIzIwMTgjMSNO-VZT5rgKECyo=