🔎 परिचय
बिहार के चिकित्सा विभाग में कार्यरत एक चिकित्सक, डॉ. बिनोद कुमार वर्मा, के खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोप में शुरू हुआ मुकदमा लगभग 17 वर्षों तक चला और अंततः पटना उच्च न्यायालय ने 9 अक्टूबर 2023 को उन्हें दोषमुक्त करार दिया। यह मामला एक "ट्रैप केस" था, जिसमें कहा गया कि उन्होंने अपने सहकर्मी से वेतन भुगतान के बदले रिश्वत मांगी। लेकिन लंबी जांच, विरोधाभासी साक्ष्य, और वैधानिक प्रक्रियाओं की अनदेखी के चलते कोर्ट ने यह मान लिया कि अभियोजन पक्ष आरोप सिद्ध करने में विफल रहा।
📜 मामले की पृष्ठभूमि
● अभियुक्त:
डॉ. बिनोद कुमार वर्मा, तत्कालीन प्रभारी चिकित्सा पदाधिकारी, प्राइमरी हेल्थ सेंटर, काको, जहानाबाद।
● शिकायतकर्ता:
डॉ. शैलेन्द्र कुमार, पुलिस अस्पताल, नवादा में कार्यरत, पूर्व में काको, जहानाबाद में तैनात थे।
● मुख्य आरोप:
डॉ. वर्मा ने डॉ. शैलेन्द्र से उनके लंबित वेतन भुगतान के लिए ₹5,000 रिश्वत मांगी। डॉ. शैलेन्द्र ने यह शिकायत 10 मार्च 2006 को विजिलेंस विभाग में की।
🕵️♂️ अभियोजन का पक्ष
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विजिलेंस कार्रवाई:
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विजिलेंस विभाग ने प्रारंभिक जांच कर 16 मार्च 2006 को प्राथमिकी दर्ज की।
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17 मार्च को पटना स्थित डॉ. वर्मा के आवास पर छापेमारी हुई और उन्हें ₹3,500 की रिश्वत लेते गिरफ्तार किया गया।
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उनके शर्ट की जेब से नोट बरामद हुए, जिन्हें सोडियम कार्बोनेट घोल में धोने पर घोल गुलाबी रंग का हो गया — इसे साक्ष्य माना गया।
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फॉरेंसिक रिपोर्ट:
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4 सीलबंद बोतलें FSL भेजी गईं, जिनमें से एक (बोतल A) टूटी हुई और खाली पाई गई।
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प्रयोगात्मक घोल की जांच नहीं हो सकी — यह अभियोजन के लिए कमजोर कड़ी बनी।
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अभियोजन द्वारा प्रस्तुत दस्तावेज़:
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प्री-ट्रैप और पोस्ट-ट्रैप मेमोरेंडम, एफआईआर, फॉरेंसिक रिपोर्ट, मंजूरी आदेश आदि साक्ष्य पेश किए गए।
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⚖️ बचाव पक्ष की दलीलें
डॉ. वर्मा के वकील श्री राजीव कुमार वर्मा ने कई मजबूत तर्क प्रस्तुत किए:
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व्यक्तिगत रंजिश: शिकायतकर्ता और आरोपी के बीच पेशेवर प्रतिस्पर्धा थी। शिकायतकर्ता पुलिस महकमे में प्रभावशाली थे और उन्होंने साजिशन फंसाया।
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गवाहों की विश्वसनीयता पर प्रश्न: ट्रैप के स्वतंत्र गवाह या तो पेश नहीं हुए, या चाय बेचने वाले जैसे व्यक्ति थे जिनकी गवाही स्वतंत्र नहीं मानी जा सकती।
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सीलिंग में लापरवाही: न तो रिश्वत की राशि को सील किया गया था, न ही शर्ट को। इससे साक्ष्य से छेड़छाड़ की संभावना बनी।
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मंजूरी की वैधता: अभियोजन की वैध मंजूरी केस शुरू होने से पहले नहीं मिली थी। ट्रायल के एक महत्वपूर्ण हिस्से के दौरान मंजूरी प्राप्त नहीं थी।
📚 न्यायालय की टिप्पणी
1. प्रारंभिक सत्यापन की देरी:
जांच अधिकारी ने सत्यापन रिपोर्ट 4-5 दिन तक रोके रखी और बिना कारण बताए देर से सौंपी। कोर्ट ने इसे गंभीरता से लिया और इसे संदेहास्पद माना।
2. गवाहों की विश्वसनीयता पर संदेह:
जो गवाह पेश हुए, वे निष्पक्ष नहीं थे। एक चाय की दुकान पर काम करता था और उसने स्वीकार किया कि उसे केवल दस्तखत करने के लिए कहा गया था।
3. साक्ष्य की सुरक्षा में लापरवाही:
बरामद रकम और आरोपी की शर्ट बिना सील के कोर्ट में पेश की गईं। FSL रिपोर्ट में भी टूटी हुई बोतल का जिक्र आया, जिससे वैज्ञानिक साक्ष्य कमजोर हो गया।
4. प्रॉसिक्यूशन मंजूरी में चूक:
ट्रायल कोर्ट ने जिस समय cognizance (ज्ञान) लिया, उस समय तक वैध मंजूरी प्राप्त नहीं हुई थी। यह प्रक्रिया की वैधता को प्रभावित करता है।
🏛️ अंतिम निर्णय
● कोर्ट ने यह माना कि:
“साक्ष्य संदेहास्पद हैं, प्रक्रिया में गंभीर चूकें हुई हैं, और अभियोजन आरोपों को ‘संदेह से परे’ सिद्ध करने में विफल रहा है।”
● परिणामस्वरूप:
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डॉ. बिनोद कुमार वर्मा को दोषमुक्त किया गया।
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दोष सिद्धि और सजा का आदेश (07.02.2013) रद्द किया गया।
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बेल बॉन्ड समाप्त कर दिया गया।
✅ निष्कर्ष
यह केस दर्शाता है कि केवल "ट्रैप" के आधार पर सजा देना उचित नहीं है, जब तक कि साक्ष्य पूर्ण, स्पष्ट और प्रक्रिया न्यायसंगत न हो। भ्रष्टाचार के विरुद्ध कानून अत्यंत आवश्यक है, लेकिन इसकी आड़ में किसी निर्दोष को सजा देना न्याय का अपमान है।
डॉ. बिनोद कुमार वर्मा की यह जीत न केवल एक व्यक्ति की जीत है, बल्कि यह न्याय व्यवस्था की उस शक्ति को भी दर्शाता है जो तथ्यों, प्रक्रियाओं और नागरिक अधिकारों की रक्षा करती है।
पूरा फैसला
पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें:
https://patnahighcourt.gov.in/viewjudgment/MjQjMTU2IzIwMTMjMSNO-VCj6UndL3Yk=