भूमिका
पटना उच्च न्यायालय ने 4 जुलाई 2024 को एक अहम निर्णय में मुनिलाल पासवान एवं अन्य को दहेज हत्या के आरोप से संदेह का लाभ देते हुए बरी कर दिया। यह मामला वर्ष 2000 में दर्ज हुआ था और इसमें आरोप था कि सरस्वती देवी को ससुरालवालों ने दहेज की मांग पूरी न होने पर मार डाला और शव को गायब कर दिया। ट्रायल कोर्ट ने सभी अभियुक्तों को दोषी ठहराते हुए कठोर सजा दी थी, लेकिन अपील के दौरान उच्च न्यायालय ने पाया कि अभियोजन अपने आरोपों को संदेह से परे सिद्ध नहीं कर सका।
मामले की पृष्ठभूमि
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पीड़िता: सरस्वती देवी
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पति: उगनदेव पासवान
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शादी का वर्ष: 1996
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मृत्यु की तिथि: 8 दिसंबर 2000
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FIR की तिथि: 9 दिसंबर 2000
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मूल आरोप: ससुराल वालों ने ₹20,000 दहेज की मांग की, पूरी न होने पर हत्या कर दी और शव गायब कर दिया
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अभियुक्त: मुनिलाल पासवान, किरनदेव पासवान, जगेश्वर पासवान, अजो पासवान, अरविंद पासवान, और मुख्य आरोपी उगनदेव पासवान (पति)
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निचली अदालत का फैसला: सभी को IPC की धारा 304B (दहेज हत्या) व 201 (शव गायब करने) के तहत दोषी ठहराया गया। उगनदेव को 10 साल व अन्य को 7-7 साल की सजा।
मुख्य साक्ष्य और अभियोजन की कहानी
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गवाही के अनुसार:
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पीड़िता के पिता गीता पासवान ने बताया कि बेटी ने दहेज मांग की शिकायत की थी।
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राखी और दुर्गा पूजा के अवसरों पर बेटी ने ₹20,000 मांगे थे।
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8 दिसंबर 2000 की रात को कथित हत्या की गई और शव को गायब कर दिया गया।
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पुलिस जांच में विरोधाभास:
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जांच अधिकारी (PW-9) ने बताया कि किसी भी गवाह ने हत्या का प्रत्यक्ष रूप से वर्णन नहीं किया।
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कई गवाहों ने जिन बातों का जिक्र कोर्ट में किया, वह उन्होंने पुलिस के समक्ष नहीं कहा था।
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मेडिकल और दस्तावेजी साक्ष्य:
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किसी डॉक्टर की गवाही नहीं ली गई।
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बचाव पक्ष के गवाह ने दिखाया कि सरस्वती देवी की मृत्यु टिटनेस की बीमारी के इलाज के दौरान हुई।
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पटना नगर निगम द्वारा जारी मृत्यु प्रमाण पत्र, डॉक्टर का पर्चा भी अदालत में पेश किया गया।
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गवाहियों में विरोधाभास
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PW-1 (भाई): कोर्ट में कहा कि मां ने बताया कि ₹20,000 मांगे गए, लेकिन I.O. के अनुसार उसने पुलिस को यह नहीं बताया।
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PW-3 (चाचा): हत्या की बात कही लेकिन I.O. ने इसे अस्वीकार किया।
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PW-4, PW-5, PW-6, PW-7: सभी “ hearsay” गवाह — यानी उन्होंने घटना नहीं देखी, सिर्फ सुना।
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PW-8 (पिता): क्रॉस एग्ज़ामिनेशन में कहा कि दामाद ने कभी पैसे नहीं मांगे। बाद में कहा कि बेटी से सुना कि मांगे गए थे।
अदालत का विश्लेषण
धारा 304B के लिए आवश्यक शर्तें:
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महिला की मृत्यु विवाह के 7 वर्षों के भीतर हुई हो।
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मृत्यु असामान्य परिस्थितियों में हो।
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मृत्यु से कुछ समय पहले दहेज को लेकर प्रताड़ना या उत्पीड़न हुआ हो।
न्यायालय ने पाया:
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न कोई प्रत्यक्ष साक्ष्य था।
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कोई भी गवाह यह साबित नहीं कर सका कि "मृत्यु से पहले" दहेज की मांग की गई या उत्पीड़न हुआ।
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पोस्टमार्टम रिपोर्ट और डॉक्टर की गवाही अनुपस्थित थी।
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मृत्यु टिटनेस की बीमारी से हुई — यह बचाव पक्ष ने प्रमाणित किया।
प्राकृतिक न्याय और संदेह का लाभ:
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यदि अभियोजन संदेह से परे आरोप सिद्ध न कर सके, तो अभियुक्तों को बरी किया जाना चाहिए।
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परिस्थितिजन्य साक्ष्य की श्रृंखला (chain of circumstances) पूरी नहीं थी।
अंतिम निर्णय
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सभी अभियुक्तों को संदेह का लाभ दिया गया।
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पूर्व में ट्रायल कोर्ट द्वारा सुनाई गई सजा रद्द की गई।
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दोनों आपराधिक अपीलें (Criminal Appeal No. 84/2006 और 155/2006) स्वीकार की गईं।
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अभियुक्त पहले से ही ज़मानत पर थे, उन्हें मुकदमा से मुक्त किया गया।
न्यायिक और सामाजिक महत्व
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मामलों में न्यायिक सटीकता की आवश्यकता: सिर्फ सामाजिक दबाव में या भावनात्मक गवाही के आधार पर दंड नहीं दिया जा सकता।
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फर्जी या कमज़ोर मामलों का प्रभाव: अभियुक्तों को लंबी कानूनी प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है, जो जीवन को प्रभावित करता है।
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दहेज हत्या कानून की गंभीरता: लेकिन इसका उपयोग सटीक और न्यायसंगत तरीके से ही किया जाना चाहिए।
निष्कर्ष
यह मामला एक बार फिर यह दर्शाता है कि आपराधिक न्याय प्रणाली में साक्ष्य सर्वोपरि होते हैं। भावनात्मक बयान, सुन-सुनाकर कही गई बातें (hearsay), या पूर्वाग्रह आधारित गवाही अभियुक्त को दोषी ठहराने के लिए पर्याप्त नहीं हैं। 24 साल पुराने इस मामले में पटना हाईकोर्ट ने यह स्पष्ट किया कि जब आवश्यक कानूनी शर्तें पूरी नहीं होतीं, तो न्यायालय को अभियुक्तों को संदेह का लाभ देना होता है।
पूरा फैसला
पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें:
https://patnahighcourt.gov.in/viewjudgment/MjQjODQjMjAwNiMxI04=-zYKSWBPbxbk=