भूमिका
यह मामला वर्ष 1994 में दर्ज एक गंभीर आपराधिक आरोप से संबंधित है, जिसमें हरिबाबू @ हरी बाबू प्रसाद को एक दलित महिला से बलात्कार करने और अनुसूचित जाति/जनजाति अत्याचार अधिनियम के तहत अपराध करने के आरोप में दोषी ठहराया गया था। 2019 में निचली अदालत द्वारा उन्हें दोषी ठहराया गया और उन्हें 7 साल के कारावास व आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई। लेकिन पटना उच्च न्यायालय ने 01 जुलाई 2024 को दिए गए निर्णय में उन्हें साक्ष्य के अभाव में बरी कर दिया।
मामले की पृष्ठभूमि
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घटना की तिथि: 4 अक्टूबर 1994, रात लगभग 9 बजे
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स्थान: गांव - राजवाड़ा, थाना - सहेबगंज, जिला - मुज़फ्फरपुर
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एफआईआर दर्ज: 24 घंटे बाद, 5 अक्टूबर 1994 की रात 9:30 बजे
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आरोप: पीड़िता ने आरोप लगाया कि हरिबाबू पिस्तौल लेकर उसके घर घुसा और बलात्कार किया
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निचली अदालत का निर्णय: 2019 में सजा सुनाई गई - IPC की धारा 376 के तहत 7 साल व SC/ST Act की धारा 3(2)(v) के तहत आजीवन कारावास
अपील में उठाए गए मुख्य तर्क
1. मेडिकल रिपोर्ट में बलात्कार का कोई प्रमाण नहीं
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पीड़िता की मेडिकल जांच में न कोई चोट, न वीर्य, और न बलात्कार के संकेत पाए गए।
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डॉक्टर (PW-6) ने स्पष्ट रूप से रिपोर्ट में लिखा कि बलात्कार का कोई प्रमाण नहीं मिला।
2. गवाहों के बयानों में विरोधाभास और “होस्टाइल” गवाह
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कुल 8 अभियोजन पक्ष के गवाहों में से कई ने घटना की पुष्टि नहीं की:
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PW-2, PW-5, PW-7, PW-8 को “होस्टाइल” घोषित किया गया।
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PW-3 (मां) और PW-4 (भाई) के बयान विरोधाभासी थे।
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PW-3 ने कहा कि पीड़िता ने घटना के बाद कुछ नहीं बताया।
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PW-4 ने कहा कि आरोपी को भागते देखा लेकिन दूर से।
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3. एफआईआर में देरी और संदेहास्पद परिस्थितियाँ
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100 से अधिक लोगों की मौजूदगी और आरोपी को पहचानने के बाद भी FIR दर्ज करने में 24 घंटे की देरी हुई।
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कोई संतोषजनक कारण नहीं बताया गया।
4. पीड़िता और आरोपी के बीच पुरानी रंजिश
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गवाहों ने बताया कि पीड़िता और उसका परिवार ताड़ी की दुकान चलाते थे और आरोपी बिना पैसे दिए ताड़ी पीते थे।
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भुगतान मांगने पर धमकी मिलती थी। इस कारण झूठा मुकदमा दर्ज किया गया।
5. जांच अधिकारी का परीक्षण नहीं
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पुलिस जांचकर्ता (Investigating Officer) को गवाही के लिए कोर्ट में प्रस्तुत नहीं किया गया, जिससे बचाव पक्ष को गंभीर नुकसान हुआ।
6. SC/ST Act के तहत अपराध सिद्ध नहीं हुआ
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धारा 3(2)(v) के तहत अपराध सिद्ध करने के लिए यह साबित करना होता है कि अपराध जाति के आधार पर किया गया।
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कोर्ट ने पाया कि ऐसा कोई साक्ष्य नहीं है कि आरोपी ने पीड़िता की जाति के कारण यह कृत्य किया।
उच्च न्यायालय का निर्णय
✦ मुख्य निष्कर्ष:
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पीड़िता का बयान “स्टर्लिंग विटनेस” (पूर्ण रूप से भरोसेमंद गवाह) की कसौटी पर खरा नहीं उतरा।
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मेडिकल और अन्य गवाहियों से कोई समर्थन नहीं मिला।
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देरी, विरोधाभास और झूठे फँसाने की आशंका ने अभियोजन के मामले को कमजोर किया।
✦ न्यायालय की टिप्पणियाँ:
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"एक मात्र पीड़िता के बयान के आधार पर सजा दी जा सकती है, बशर्ते वह पूर्णतः विश्वसनीय हो।"
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"इस मामले में पीड़िता का बयान असंगत और संदेहास्पद है।"
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"SC/ST Act के तहत सजा देने का कोई आधार नहीं है।"
✦ निर्णय:
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निचली अदालत द्वारा दोषसिद्धि और सजा को रद्द कर दिया गया।
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हरिबाबू को बरी कर दिया गया और जेल से तत्काल रिहाई के आदेश दिए गए।
न्यायिक दृष्टिकोण और सामाजिक प्रभाव
यह मामला दर्शाता है कि:
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गंभीर आरोपों की निष्पक्ष और प्रमाण आधारित जांच आवश्यक है।
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केवल पीड़िता का बयान पर्याप्त नहीं, जब तक वह संदेह से परे ना हो।
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लंबित मामलों में वर्षों तक न्याय मिलने में देरी भी अभियुक्तों के जीवन पर गंभीर प्रभाव डालती है।
यह भी एक चेतावनी है कि झूठे मामलों से न्याय प्रक्रिया और वास्तविक पीड़ितों की आवाज दोनों को नुकसान पहुँचता है।
निष्कर्ष
लगभग 30 वर्षों के लंबे कानूनी संघर्ष के बाद, हरिबाबू को बलात्कार और SC/ST अत्याचार जैसे गंभीर आरोपों से बरी कर दिया गया। इस फैसले में उच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया कि केवल आरोप या भावनात्मक बयान के आधार पर किसी को सजा नहीं दी जा सकती। यह निर्णय न्यायपालिका की निष्पक्षता, गहन मूल्यांकन और साक्ष्य आधारित न्याय के सिद्धांतों को पुनः पुष्ट करता है।
पूरा फैसला
पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें:
https://patnahighcourt.gov.in/viewjudgment/NSMyNTcjMjAxOSMxI04=-2Mqo9--am1--bR8MI=