"बिना साक्ष्य व सुनवाई के सेवा से बर्खास्त अधिकारी को न्याय: पटना हाईकोर्ट ने बहाल किया प्रिंसिपल प्रदीप कुमार सिंह"


 

भूमिका

पटना उच्च न्यायालय ने प्रदीप कुमार सिंह बनाम बिहार राज्य (सिविल रिट केस संख्या 8014/2019) में दिनांक 8 मई 2024 को एक ऐतिहासिक फैसला सुनाते हुए याचिकाकर्ता को सेवा से हटाए जाने के निर्णय को अवैध ठहराया और उसे समस्त लाभों के साथ पुनः सेवा में बहाल करने का आदेश दिया। यह निर्णय उन हजारों सरकारी कर्मियों के लिए आशा की किरण है जो बिना साक्ष्य, बिना सुनवाई और दुर्भावनापूर्ण कारणों से अपने पद से हटा दिए जाते हैं।


मामले की पृष्ठभूमि

  • याचिकाकर्ता: प्रदीप कुमार सिंह, तत्कालीन प्राचार्य, जिला शिक्षा एवं प्रशिक्षण संस्थान, मधेपुरा

  • आरोप: 16 जुलाई 2013 को निगरानी विभाग द्वारा ₹9,000 घूस लेने के आरोप में पकड़े जाने का दावा

  • FIR: Vigilance P.S. Case No. 38/2013

  • प्रारंभिक कार्रवाई: 6 अगस्त 2013 को निलंबन

  • विभागीय कार्यवाही: 3 फरवरी 2014 को आरोप पत्र (Prapatra-Ka) जारी

  • दंड आदेश: 12 मार्च 2018 को सेवा से बर्खास्तगी


याचिकाकर्ता के तर्क

  1. बिना प्रमाणित साक्ष्य के आरोप:

    • आरोप पत्र में केवल प्राथमिकी की प्रति दी गई थी, जबकि 18 पृष्ठों के साक्ष्य का उल्लेख था।

    • याचिकाकर्ता को पूर्ण साक्ष्य नहीं दिए गए, न ही गवाहों की सूची।

  2. दुर्भावनापूर्ण फंसाना:

    • दो शिकायतकर्ता (तरुण कुमार व ऋषिराज सिंह) के पास पर्याप्त उपस्थिति नहीं थी (54.59% और 59.77%), जिसके कारण उन्हें अगली परीक्षा में बैठने की अनुमति नहीं थी।

    • उन्होंने बदले की भावना से साजिश रचकर याचिकाकर्ता को फंसाया।

  3. विभागीय जांच की गंभीर त्रुटियाँ:

    • जांच अधिकारी ने न तो कोई साक्ष्य प्रस्तुत करवाया और न ही कोई गवाह उपस्थित हुआ।

    • याचिकाकर्ता को गवाहों से पूछताछ (cross-examination) का अवसर नहीं मिला।

    • अगली तिथि कभी तय नहीं हुई और सीधे दूसरा कारण बताओ नोटिस भेज दिया गया।

  4. न्यायिक प्रक्रिया का उल्लंघन:

    • जांच अधिकारी ने यह स्पष्ट स्वीकार किया कि कोई गवाह प्रस्तुत नहीं हुआ और न ही कोई साक्ष्य दिया गया

    • अनुशासनात्मक अधिकारी द्वारा दिया गया दंड आदेश “non-speaking order” था — यानि उसमें याचिकाकर्ता की दलीलों पर कोई विचार नहीं किया गया।


अदालत का अवलोकन

  1. CCA नियमों का उल्लंघन:
    बिहार सरकारी सेवक (वर्गीकरण, नियंत्रण और अपील) नियमावली, 2005 के तहत उचित सुनवाई, साक्ष्य प्रस्तुति और निष्पक्ष निर्णय अनिवार्य हैं।
    इन नियमों की खुलेआम अवहेलना की गई।

  2. प्राकृतिक न्याय का घोर उल्लंघन:

    • याचिकाकर्ता को आत्म-पक्ष रखने का अवसर नहीं दिया गया।

    • विभागीय रिकॉर्ड से स्पष्ट है कि कोई साक्ष्य मौजूद नहीं था, न कोई गवाह, न कोई क्रॉस एग्ज़ामिनेशन।

  3. न्यायिक मिसालों का संदर्भ:

    • Roop Singh Negi vs. Punjab National Bank (2009): बिना साक्ष्य और निष्पक्षता के किसी को दंडित नहीं किया जा सकता।

    • Markand C. Gandhi vs. Rohini M. Dandekar (2008): non-speaking orders न्यायिक मन की अनुपस्थिति दर्शाते हैं और अवैध होते हैं।

  4. निगरानी मामले में भी संदेह:

    • पूर्व-जांच, ट्रैप प्रक्रिया, पोस्ट ट्रैप मेमो — सबमें गंभीर संदेह।

    • गवाह अमित कुमार घटना स्थल पर उस दिन उपस्थित ही नहीं था।

    • शिकायतकर्ता के आपराधिक इतिहास को नजरअंदाज किया गया।


राज्य सरकार का बचाव

  • सरकार ने कहा कि रिकॉर्ड के पृष्ठ 103, 104 और 105 में अनुशासनात्मक प्राधिकरण ने कुछ बयान पढ़े हैं।

  • लेकिन कोर्ट ने पाया कि ये बयान न तो प्रमाणित थे और न ही प्रक्रियात्मक रूप से विधिसम्मत।

  • यह भी स्वीकार किया गया कि कोई रिकॉर्ड यह साबित नहीं करता कि याचिकाकर्ता को गवाहों से पूछताछ का अवसर दिया गया


अंतिम निर्णय

  • कोर्ट ने 12.03.2018 का बर्खास्तगी आदेश, 01.10.2018 का पुनरावलोकन आदेश और 24.04.2014 की जांच रिपोर्ट को अवैध घोषित करते हुए रद्द कर दिया।

  • सरकार को आदेश दिया गया कि—

    • याचिकाकर्ता को सेवा में पुनः बहाल किया जाए।

    • उसे समस्त लाभ प्रदान किए जाएं, जैसे कि वेतन, सेवा काल की गणना आदि।


सामाजिक और प्रशासनिक महत्व

  1. न्यायिक पारदर्शिता:
    यह फैसला दर्शाता है कि किसी भी सरकारी कर्मचारी को केवल आरोप के आधार पर नौकरी से नहीं हटाया जा सकता।

  2. फर्जी ट्रैप केस की पहचान:
    न्यायालय ने यह स्पष्ट किया कि बिना साक्ष्य और प्रक्रिया के, निगरानी कार्रवाई न्यायसंगत नहीं हो सकती।

  3. विभागीय प्रक्रियाओं में सुधार की आवश्यकता:
    जांच अधिकारियों, प्रेजेंटिंग ऑफिसरों और अनुशासनात्मक अधिकारियों को निष्पक्ष और विधिसम्मत तरीके से कार्य करना चाहिए।


निष्कर्ष

प्रदीप कुमार सिंह के मामले में पटना उच्च न्यायालय का यह निर्णय न्यायिक प्रक्रिया की गरिमा और सरकारी सेवकों के अधिकारों की रक्षा करता है। बिना साक्ष्य, बिना गवाह और बिना सुनवाई किसी को दोषी ठहराना लोकतांत्रिक प्रशासन के मूल्यों के खिलाफ है। यह फैसला सिर्फ एक व्यक्ति की सेवा बहाली नहीं है, बल्कि पूरे व्यवस्था तंत्र को यह संदेश है कि “न्याय का रास्ता प्रक्रिया से होकर गुजरता है, पूर्वाग्रह से नहीं।”

पूरा फैसला पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें:

https://patnahighcourt.gov.in/viewjudgment/MTUjODAxNCMyMDE5IzEjTg==-ubbQoMxZOo4=