न्याय की जीत: सेवानिवृत्त कर्मचारियों के भविष्य निधि अधिकारों की पुनर्स्थापना

 


प्रस्तावना और मामले की पृष्ठभूमि

पटना हाई कोर्ट का यह निर्णय बिहार राज्य सहकारी बैंक के सेवानिवृत्त कर्मचारियों के भविष्य निधि अधिकारों से संबंधित एक महत्वपूर्ण मामला है। न्यायमूर्ति हरीश कुमार के समक्ष चार अलग-अलग रिट याचिकाएं प्रस्तुत की गईं, जिनमें बाल्मीकि प्रसाद शर्मा, राम नरेश कुमार शर्मा, धीरेंद्रधारी सिंह और सच्चिदानंद प्रसाद शर्मा जैसे सेवानिवृत्त कर्मचारियों ने अपने वैधानिक अधिकारों की मांग की थी।

यह मामला उन कर्मचारियों की दुर्दशा को दर्शाता है जिन्होंने अपना पूरा जीवन संस्था की सेवा में समर्पित किया, लेकिन सेवानिवृत्ति के बाद उनके साथ अन्याय हुआ। इन कर्मचारियों ने 2004 से 2010 के बीच सेवानिवृत्ति प्राप्त की थी, लेकिन उन्हें अपने भविष्य निधि की पूरी राशि नहीं मिली थी।

समस्या की जड़

मामले की जड़ में था बिहार राज्य सहकारी बैंक का गलत रवैया। जब कर्मचारियों ने अपने भविष्य निधि खाते से एडवांस लोन लिया था, तो बैंक ने उस पर साधारण ब्याज के बजाय चक्रवृद्धि ब्याज लगाया था। यह कार्य पूर्णतः गैरकानूनी था क्योंकि भविष्य निधि नियमों के अनुसार एडवांस लोन पर केवल साधारण ब्याज ही लगाया जा सकता है।

बैंक की इस गलत नीति के कारण सेवानिवृत्त कर्मचारियों के भविष्य निधि खातों से अधिक राशि काट ली गई थी। यह एक व्यवस्थित अन्याय था जिसका शिकार न केवल ये चार याचिकाकर्ता बने, बल्कि बैंक के अन्य कई कर्मचारी भी इसका शिकार हुए थे।

न्यायिक संघर्ष और पूर्व निर्णय

यह मामला पहली बार कोर्ट में नहीं आया था। इससे पहले भी कई कर्मचारियों ने इसी मुद्दे पर कोर्ट का दरवाजा खटखटाया था। एलपीए संख्या 838/2014 और अन्य संबंधित मामलों में पटना हाई कोर्ट की खंडपीठ ने स्पष्ट रूप से कहा था कि भविष्य निधि के एडवांस लोन पर चक्रवृद्धि ब्याज लगाना गैरकानूनी है।

बिहार राज्य सहकारी बैंक इस फैसले से संतुष्ट नहीं था और उसने सुप्रीम कोर्ट में एसएलपी संख्या 22705-22706/2015 दाखिल की। लेकिन 6 मार्च 2017 को सुप्रीम कोर्ट ने इस याचिका को खारिज कर दिया, जिससे हाई कोर्ट का फैसला पुष्ट हो गया।

क्षेत्रीय भविष्य निधि आयुक्त का आदेश

सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद, 12 अप्रैल 2017 को क्षेत्रीय भविष्य निधि आयुक्त, पटना ने एक महत्वपूर्ण आदेश पारित किया। इस आदेश में स्पष्ट रूप से कहा गया कि बैंक द्वारा अवैध रूप से काटी गई राशि को ब्याज सहित वापस करना होगा।

बैंक ने इस आदेश के अनुसार 2004 से 8 मई 2015 तक की अवधि के लिए चार्टर्ड अकाउंटेंट के माध्यम से गणना की और 2018 तथा 2019 में आंशिक भुगतान किया। लेकिन समस्या यह थी कि 8 मई 2015 से लेकर वास्तविक भुगतान की तारीख तक का ब्याज नहीं जोड़ा गया था।

याचिकाकर्ताओं की मांगें

याचिकाकर्ताओं ने कोर्ट से निम्नलिखित राहत की मांग की थी। पहली मांग यह थी कि उनके भविष्य निधि की पूरी राशि वर्तमान तक के ब्याज के साथ दी जाए। दूसरी मांग यह थी कि जो ब्याज बैंक द्वारा गणना के समय शामिल नहीं किया गया था, उसे भी शामिल करके पूरा भुगतान किया जाए।

तीसरी मांग छुट्टी नकदीकरण और वेतन की राशि को 10 प्रतिशत ब्याज के साथ वापस करने की थी। यह मांग एलपीए संख्या 1401/2014 के फैसले के आधार पर की गई थी, जिसमें इसी प्रकार की राहत दी गई थी।

बैंक की ओर से तर्क

बिहार राज्य सहकारी बैंक की ओर से पेश वकील श्री एस.एन. पाठक ने कई तर्क दिए। उनका मुख्य तर्क यह था कि याचिकाकर्ता 2004 से 2010 के बीच सेवानिवृत्त हुए थे लेकिन 15-17 साल बाद कोर्ट आए हैं, इसलिए देरी के आधार पर याचिका खारिज होनी चाहिए।

उन्होंने त्रिदीप कुमार डिंगल बनाम पश्चिम बंगाल राज्य के मामले का हवाला देते हुए कहा कि जो व्यक्ति अपने अधिकारों पर काफी समय तक सोया रहता है, उसे असाधारण राहत नहीं मिलनी चाहिए। उन्होंने यह भी कहा कि याचिकाकर्ताओं को देय राशि का भुगतान हो चुका है और अब ब्याज की मांग बैंक पर अतिरिक्त वित्तीय बोझ डालेगी।

न्यायालय का विश्लेषण

न्यायमूर्ति हरीश कुमार ने बैंक के तर्कों को पूर्णतः खारिज करते हुए स्पष्ट किया कि देरी का आरोप बिल्कुल निराधार है। कोर्ट ने कहा कि 2015 में मामला तय हो जाने के बाद जब बैंक ने कर्मचारियों को उनके वैधानिक लाभ नहीं दिए, तो वे कोर्ट आने के लिए मजबूर हुए।

न्यायालय ने स्पष्ट रूप से कहा कि वास्तव में देरी बैंक की ओर से हुई है, याचिकाकर्ताओं की ओर से नहीं। बैंक का यह वैधानिक दायित्व था कि वह कोर्ट के आदेश का क्रियान्वयन सुनिश्चित करे, लेकिन वह इसमें असफल रहा।

समान स्थिति वाले अन्य मामले

कोर्ट के सामने कई अन्य समान मामलों के आदेश भी प्रस्तुत किए गए, जिनमें सीडब्ल्यूजेसी संख्या 3223/2023, 4139/2023 और 8612/2023 शामिल थे। इन सभी मामलों में कोर्ट ने बैंक को निर्देश दिया था कि वह याचिकाकर्ताओं के खाते में जमा राशि पर अर्जित ब्याज की पुनर्गणना करे।

न्यायालय ने आश्चर्य व्यक्त किया कि समान स्थिति वाले कर्मचारियों के मामले में कोर्ट के आदेश के बावजूद, अन्य लोगों को फिर से कोर्ट आने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है।

बिहार राज्य मुकदमेबाजी नीति 2011

कोर्ट ने बिहार राज्य मुकदमेबाजी नीति 2011 के खंड 4-सी(I) का उल्लेख किया, जिसमें स्पष्ट रूप से कहा गया है कि समान स्थिति वाले सभी कर्मचारियों को कवर किए गए मामलों का लाभ दिया जाना चाहिए। यदि कोर्ट के आदेश कुछ मुकदमेबाजों के मामले में लागू किए गए हैं, तो वे सभी समान स्थिति वाले व्यक्तियों के लिए भी लागू किए जाने चाहिए।

न्यायालय का अंतिम निर्णय

न्यायालय ने अपने निर्णय में स्पष्ट निर्देश दिए। बिहार राज्य सहकारी बैंक के प्रबंध निदेशक को याचिकाकर्ताओं के खाते में जमा राशि पर अर्जित ब्याज की पुनर्गणना करने का आदेश दिया गया। बैंक को यह भी निर्देश दिया गया कि वह याचिकाकर्ताओं से नए फॉर्म भरवाकर सभी औपचारिकताएं पूरी करे और फिर इसे क्षेत्रीय भविष्य निधि आयुक्त को भेजे।

क्षेत्रीय भविष्य निधि आयुक्त को निर्देश दिया गया कि वह अपने स्तर पर ब्याज की पुनर्गणना करे और यह सत्यापित करे कि बैंक की गणना में कोई त्रुटि तो नहीं है। यदि कोई गलती मिले तो उसे तदनुसार सुधारने की सलाह दे।

समयसीमा और अपेक्षाएं

न्यायालय ने आठ सप्ताह की समयसीमा निर्धारित की है जिसमें सभी औपचारिकताएं पूरी करनी हैं। याचिकाकर्ताओं को अवसर देने के बाद ही यह प्रक्रिया पूरी करनी है।

कोर्ट ने यह अपेक्षा व्यक्त की है कि प्रतिवादी निर्धारित समयसीमा का पालन करेंगे और कानून के अनुसार सभी देय राशि का भुगतान सुनिश्चित करेंगे।

निष्कर्ष और सामाजिक संदेश

यह निर्णय सेवानिवृत्त कर्मचारियों की न्यायसंगत मांगों की विजय है। यह दिखाता है कि न्यायपालिका किस प्रकार कमजोर वर्गों के अधिकारों की रक्षा करती है और सरकारी संस्थानों को जवाबदेह बनाती है। यह निर्णय एक मिसाल है कि देर से न्याय मिले लेकिन न्याय अवश्य मिलना चाहिए।

संपूर्ण फैसला नीचे पढ़ें

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