POCSO मामले में आरोपी को संदेह का लाभ: पटना हाई कोर्ट ने दोषसिद्धि को किया रद्द

 


निर्णय की सरल व्याख्या

पटना उच्च न्यायालय ने एक महत्वपूर्ण निर्णय में POCSO (बाल यौन शोषण से सुरक्षा) अधिनियम के तहत दोषसिद्ध एक व्यक्ति की सजा को रद्द कर दिया है। यह मामला पूर्वी चंपारण के तुरकौलिया थाना अंतर्गत वर्ष 2019 में दर्ज एफआईआर से संबंधित था। आरोपी पर एक नाबालिग लड़की का अपहरण कर उसके साथ बलात्कार करने, जातिगत अपमान और सोशल मीडिया पर आपत्तिजनक सामग्री अपलोड करने का आरोप था। ट्रायल कोर्ट ने उसे दोषी पाते हुए विभिन्न धाराओं में कुल मिलाकर 10 वर्षों की कठोर कारावास की सजा सुनाई थी।

हालांकि, हाई कोर्ट ने पाया कि:

  1. अभियोजन पक्ष यह सिद्ध नहीं कर पाया कि पीड़िता घटना के समय "बालिका" (अर्थात् 18 वर्ष से कम उम्र) थी। उसका उम्र निर्धारण केवल रेडियोलॉजिकल जांच (एक्स-रे) के आधार पर किया गया, जो कि कानूनी रूप से अंतिम प्रमाण नहीं माना जा सकता।

  2. पीड़िता की गवाही में विरोधाभास और घटनाक्रम में अस्पष्टता थी। उसकी प्रारंभिक धारा 164 सीआरपीसी की बयान और कोर्ट में दर्ज गवाही में अंतर पाए गए।

  3. एफआईआर पीड़िता की बरामदगी के 15 दिन बाद दर्ज की गई, जिससे अभियोजन की विश्वसनीयता पर संदेह उत्पन्न हुआ।

  4. मेडिकल रिपोर्ट में बलात्कार या यौन शोषण से संबंधित कोई स्पष्ट निष्कर्ष नहीं था।

इन सभी तथ्यों को ध्यान में रखते हुए, न्यायालय ने संदेह का लाभ देते हुए अभियुक्त की दोषसिद्धि को रद्द कर दिया और उसे रिहा करने का आदेश दिया।

यह निर्णय क्यों महत्वपूर्ण है?

यह निर्णय दो महत्वपूर्ण कानूनी सिद्धांतों को स्पष्ट करता है:

  • केवल रेडियोलॉजिकल परीक्षण के आधार पर किसी को POCSO अधिनियम के तहत "बालिका" घोषित नहीं किया जा सकता।

  • किसी पीड़िता की गवाही तभी दोषसिद्धि का आधार बन सकती है जब वह स्पष्ट, सुसंगत और "sterling quality" की हो।

यह निर्णय भविष्य में ऐसे मामलों में सावधानीपूर्वक जांच और साक्ष्य के महत्व को रेखांकित करता है। साथ ही, यह यह भी स्पष्ट करता है कि आरोपी को संदेह का लाभ मिलना एक कानूनी अधिकार है।

मुख्य कानूनी मुद्दे:

  1. क्या पीड़िता की उम्र विधि अनुसार "बालिका" सिद्ध हुई?

  2. क्या पीड़िता की गवाही "sterling witness" की कसौटी पर खरी उतरी?

  3. क्या अभियोजन द्वारा प्रस्तुत साक्ष्य बलात्कार व यौन शोषण को सिद्ध करते हैं?

  4. क्या एफआईआर में हुई देरी को युक्तिसंगत ठहराया जा सकता है?

प्रसंग में उद्धृत निर्णय:

  • Jarnail Singh v. State of Haryana, (2013) 7 SCC 263

  • Krishna Kumar Malik v. State of Haryana, (2011) 7 SCC 130

  • Rai Sandeep @ Deepu v. State (NCT of Delhi), (2012) 8 SCC 21

  • Rajak Mohammad v. State of Himachal Pradesh, (2018) 9 SCC 248

न्यायालय द्वारा अपनाया गया निष्कर्ष:

"अभियोजन द्वारा पीड़िता को बालिका सिद्ध करने हेतु आवश्यक दस्तावेज प्रस्तुत नहीं किए गए। पीड़िता की गवाही में महत्वपूर्ण असंगतताएँ हैं और बलात्कार की पुष्टि करने हेतु कोई चिकित्सा प्रमाण नहीं है। इसलिए, संदेह का लाभ देते हुए दोषसिद्धि को रद्द किया जाता है।"

केस शीर्षक: प्रदीप श्रीवास्तव बनाम बिहार राज्य

केस नंबर: CRIMINAL APPEAL (SJ) No.1133 of 2024

निर्णय का संदर्भ: 2024(4)PLJR

पीठ और न्यायाधीश: माननीय श्री न्यायमूर्ति चंद्र शेखर झा

वकीलों के नाम:

  • अपीलकर्ता की ओर से: श्री सुधीर कुमार सिंह एवं श्री प्रियेश कुमार, अधिवक्ता

  • राज्य की ओर से: श्रीमती अनीता कुमारी सिंह, अतिरिक्त लोक अभियोजक

निर्णय की आधिकारिक लिंक

https://patnahighcourt.gov.in/viewjudgment/MjQjMTEzMyMyMDI0IzEjTg==-eUVDzOeg4XQ=

 


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