न्याय की जीत: 12 साल की लड़ाई के बाद जब जिला मजिस्ट्रेट की अधिकार से परे की कार्रवाई को पटना हाई कोर्ट ने दी करारी शिकस्त

 


मामले का परिचय

यह एक महत्वपूर्ण न्यायिक फैसला है जो पटना हाई कोर्ट में अजीत कुमार बनाम बिहार राज्य के मामले में 4 अक्टूबर 2024 को न्यायमूर्ति श्रीमती जी. अनुपमा चक्रवर्ती द्वारा दिया गया। यह मामला दिखाता है कि कैसे एक साधारण नागरिक ने न्यायिक प्रक्रिया का सहारा लेकर अपने अधिकारों की रक्षा की।

मुख्य पात्र और पृष्ठभूमि

याचिकाकर्ता: अजीत कुमार (स्वर्गीय भगवान दयाल सिंह के पुत्र)

  • निवास: गांव अच्छुआ, पुलिस स्टेशन दुल्हिन बाजार, जिला पटना
  • समस्या: अपनी जमीन पर 11KV बिजली की लाइन से परेशानी

प्रतिवादी: बिहार राज्य, ऊर्जा विभाग, बिहार स्टेट पावर होल्डिंग कंपनी और अन्य संबंधित अधिकारी

समस्या की शुरुआत

अजीत कुमार के पास बालीपकर गांव में प्लॉट नंबर 30, खाता नंबर 200 में 1 कट्ठा जमीन थी। इस जमीन से होकर 11KV की बिजली लाइन गुजर रही थी, जो:

  • जमीन के विकास में बाधा डाल रही थी
  • याचिकाकर्ता को भारी आर्थिक नुकसान हो रहा था
  • संपत्ति का उपयोग करने में समस्या आ रही थी

न्यायिक यात्रा का पहला चरण (2012)

प्रारंभिक रिट पिटीशन

  • अजीत कुमार ने 2012 में CWJC No. 17872 दायर की
  • मांग: 11KV लाइन को हटाने का निर्देश
  • 25 सितंबर 2012 को न्यायालय का आदेश:
    • जिला मजिस्ट्रेट को इलेक्ट्रिसिटी एक्ट 2003 की धारा 164 के तहत उचित आदेश पारित करने का निर्देश
    • दो महीने के अंदर निर्णय लेने का आदेश

जिला मजिस्ट्रेट के समक्ष आवेदन

  • 8 अक्टूबर 2012 को अजीत कुमार ने अपना प्रतिनिधित्व दाखिल किया
  • जिला मजिस्ट्रेट ने मिसेलेनियस केस नंबर 12 of 2012-13 शुरू किया
  • लेकिन डेढ़ साल तक कोई आदेश नहीं आया

कोर्ट कंटेम्प्ट और दबाव

न्यायालय की अवमानना का मामला

  • 24 जून 2014 को अवमानना का मामला (MJC Case No. 2264 of 2014) दायर किया
  • इस दबाव के बाद कार्यवाही तेज हुई

पहला सकारात्मक आदेश (27 सितंबर 2014)

जिला मजिस्ट्रेट ने आदेश दिया:

  • याचिकाकर्ता 15,603 रुपये जमा करे
  • बिजली विभाग दो महीने में लाइन हटाए
  • यह एक उचित और न्यायसंगत आदेश था

समस्या की जड़: रिव्यू पिटीशन

बिजली विभाग की चालबाजी

  • 18 अक्टूबर 2014 को एक्जीक्यूटिव इलेक्ट्रिकल इंजीनियर ने रिव्यू पिटीशन दायर की
  • उद्देश्य: पहले आदेश को बदलना और अधिक पैसा वसूलना

याचिकाकर्ता का विरोध

  • 1 नवंबर 2014 को अजीत कुमार ने जवाब दिया
  • तर्क: जिला मजिस्ट्रेट के पास अपने आदेश को रिव्यू करने की शक्ति नहीं है

विवादास्पद रिव्यू आदेश (25 नवंबर 2014)

नया आदेश - भारी वित्तीय बोझ

जिला मजिस्ट्रेट ने रिव्यू में फैसला दिया:

  1. 15,603 रुपये - सुपरविजन चार्ज के रूप में
  2. 2,39,864 रुपये - लाइन शिफ्टिंग की पूरी लागत
  3. कुल राशि: 2,55,467 रुपये (पहले के मुकाबले 16 गुना अधिक!)

यह आदेश क्यों गलत था?

  • मूल आदेश में केवल 15,603 रुपये की बात थी
  • रिव्यू में अचानक 2,39,864 रुपये की मांग
  • कानूनी प्राधिकार के बिना रिव्यू किया गया

द्वितीय रिट पिटीशन (2016)

नया मुकदमा

  • CWJC No. 1785 of 2016 दायर की गई
  • मांग: 25 नवंबर 2014 के रिव्यू आदेश को रद्द करना
  • आधार: जिला मजिस्ट्रेट के पास रिव्यू की शक्ति नहीं है

कानूनी सिद्धांत और न्यायालय का विश्लेषण

सुप्रीम कोर्ट का मार्गदर्शन

न्यायमूर्ति ने कलाभारती एडवरटाइजिंग बनाम हेमंत विमलनाथ नरीचानिया (2010) 9 SCC 437 का हवाला दिया:

मुख्य कानूनी सिद्धांत:

  1. रिव्यू की शक्ति स्वाभाविक नहीं है - यह कानून द्वारा स्पष्ट रूप से दी जानी चाहिए
  2. बिना कानूनी प्राधिकार के रिव्यू अवैध है
  3. न्यायिक/अर्ध-न्यायिक आदेशों का रिव्यू केवल विशिष्ट कानूनी प्रावधान के तहत हो सकता है

न्यायालय का निष्कर्ष

  • जिला मजिस्ट्रेट के पास अपने आदेश को रिव्यू करने की कोई शक्ति नहीं है
  • यदि बिजली विभाग को आपत्ति थी, तो उन्हें कमिश्नर के पास रिविजन दायर करना चाहिए था
  • रिव्यू आदेश कानून विरुद्ध और शक्ति से परे है

न्यायालय का अंतिम फैसला

निर्णय (12 अक्टूबर 2024)

  1. रिट पिटीशन स्वीकार की गई
  2. 25 नवंबर 2014 का रिव्यू आदेश रद्द
  3. मूल आदेश (27 सितंबर 2014) बहाल
  4. याचिकाकर्ता को केवल 15,603 रुपये देने होंगे

इस फैसले का महत्व

नागरिक अधिकारों की सुरक्षा

  • एक आम आदमी की न्याय तक पहुंच
  • सरकारी अधिकारियों की मनमानी पर रोक
  • कानून के शासन की स्थापना

न्यायिक प्रक्रिया की शुद्धता

  • अधिकारियों को अपनी सीमा में रहने की सीख
  • रिव्यू की शक्ति के दुरुपयोग पर रोक
  • न्यायिक अनुशासन की महत्ता

आर्थिक न्याय

  • 2,39,864 रुपये की अनुचित मांग से मुक्ति
  • छोटे नागरिकों पर अनावश्यक वित्तीय बोझ से राहत

सबक और संदेश

नागरिकों के लिए

  • अपने अधिकारों को जानें और उनकी रक्षा करें
  • न्यायपालिका पर भरोसा रखें
  • अन्याय के खिलाफ डटकर खड़े हों

प्रशासन के लिए

  • कानूनी सीमाओं का सम्मान करें
  • अधिकारों का दुरुपयोग न करें
  • पारदर्शिता और जवाबदेही बनाए रखें

निष्कर्ष

यह मामला दिखाता है कि भारतीय न्यायव्यवस्था में न्याय मिलना मुश्किल हो सकता है, लेकिन असंभव नहीं है। अजीत कुमार की लड़ाई 2012 से 2024 तक चली, लेकिन अंततः सत्य और न्याय की जीत हुई। यह फैसला हर उस नागरिक के लिए प्रेरणास्रोत है जो अन्याय के खिलाफ लड़ रहा है।

"न्याय में देर हो सकती है, लेकिन न्याय होकर रहता है" - यह मामला इस कहावत का जीवंत उदाहरण है।

संपूर्ण फैसला नीचे देखें

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