भूमिका:
बिहार मेडिकल सर्विसेज एंड इंफ्रास्ट्रक्चर कॉर्पोरेशन लिमिटेड (BMSICL) के एक जनरल मैनेजर को भ्रष्टाचार के आरोपों के चलते सेवा से हटाया गया। यह मामला इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि इसमें संविदा कर्मी के अधिकार, प्राकृतिक न्याय का सिद्धांत, और सेवा समाप्ति के वैधानिक पहलुओं पर गंभीर प्रश्न खड़े हुए। इस फैसले में अदालत को यह तय करना था कि क्या बिना विभागीय जांच व सुनवाई के सेवा समाप्त करना वैध था या नहीं।
प्रकरण की पृष्ठभूमि:
संजय रंजन, जिन्होंने BMSICL में वर्ष 2012 में प्रोजेक्ट इंजीनियर के रूप में संविदा पर कार्य शुरू किया था, बाद में उन्हें 2014 में जनरल मैनेजर (प्रोजेक्ट्स एंड डिज़ाइन) के पद पर नियुक्त किया गया। शुरुआत में एक साल की संविदा थी, किंतु इसके बाद अनुबंध नवीनीकरण बिना औपचारिक समझौते के चलता रहा।
उन्हें उत्कृष्ट कार्य प्रदर्शन के लिए कई बार प्रशंसा पत्र भी मिले। वर्ष 2021 में कंपनी ने एक अधिसूचना के आधार पर संविदा कर्मियों की सेवा नियमित करने का निर्णय लिया, जिससे संजय रंजन की सेवा भी अब स्थायी रूप में मानी जा रही थी।
विवाद की शुरुआत:
जून 2022 में बिहार विशेष निगरानी इकाई (Vigilance) ने उनके खिलाफ आय से अधिक संपत्ति अर्जित करने के आरोप में एक एफआईआर (09/2022) दर्ज की। आरोप था कि उन्होंने 1.76 करोड़ रुपये से अधिक की अवैध संपत्ति अर्जित की है।
इसके बाद BMSICL के प्रबंध निदेशक ने 30 जून 2022 को एक पत्र जारी कर उन्हें प्रशासनिक व वित्तीय कार्यों से वंचित कर दिया और तीन दिनों में स्पष्टीकरण मांगा। 11 जुलाई 2022 को उन्हें सेवा से हटा दिया गया।
याचिकाकर्ता के तर्क:
संजय रंजन ने हाईकोर्ट में याचिका दायर करते हुए कहा कि:
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बर्खास्तगी से पहले न कोई विभागीय जांच की गई, न ही उचित सुनवाई का मौका मिला।
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यह सेवा समाप्ति एक "कलंककारी" (stigmatic) आदेश है क्योंकि यह केवल एफआईआर के आधार पर हुई।
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2018 की अधिसूचना व 2021 के बोर्ड निर्णय के अनुसार उनकी सेवा नियमित हो चुकी थी, इसलिए संविदा नियम लागू नहीं होते।
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इस प्रकार की बर्खास्तगी संविधान के अनुच्छेद 311(2) का उल्लंघन है।
प्रतिवादियों (राज्य और BMSICL) के तर्क:
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याचिकाकर्ता संविदा कर्मी थे और उनके सेवा अनुबंध की धारा 10 (c)(ii)(iii) के अनुसार सेवा बिना सूचना के समाप्त की जा सकती थी, यदि आचरण संस्था के हित के विरुद्ध हो।
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याचिकाकर्ता के घर, कार्यालय और बैंक लॉकर से बड़ी मात्रा में नकद, गहने, बीमा दस्तावेज आदि बरामद हुए।
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विभाग को विशेष सतर्कता इकाई से रिपोर्ट मिली थी, जिसके आधार पर कार्रवाई की गई।
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सेवा समाप्ति दंडात्मक नहीं थी, बल्कि संस्था के हित में प्रबंध निदेशक के आकलन के आधार पर हुई।
अदालत के विचार और निर्णय:
न्यायमूर्ति बिबेक चौधरी की एकलपीठ ने निम्नलिखित महत्वपूर्ण बिंदु उठाए:
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संविदा सेवा: चूंकि याचिकाकर्ता ने सेवा अनुबंध को स्वीकार किया था, जिसमें प्रबंध निदेशक को विशेष परिस्थितियों में सेवा समाप्त करने का अधिकार था, यह संवैधानिक अनुच्छेद 311(2) के दायरे में नहीं आता।
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प्राकृतिक न्याय: याचिकाकर्ता को कारण बताओ नोटिस दिया गया था और उन्होंने उसका उत्तर भी दिया, अतः यह नहीं कहा जा सकता कि उन्हें सुनवाई का अवसर नहीं मिला।
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कलंककारी (Stigmatic) बर्खास्तगी नहीं: सेवा समाप्ति का कारण केवल एफआईआर थी, जो कि "मूल कारण" (foundation) नहीं बल्कि "प्रेरक तत्व" (motive) था। यह आदेश उनके चरित्र या भविष्य पर कोई कलंक नहीं लगाता।
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नियमतः कार्रवाई: अनुबंध के अनुसार, बिना जांच के सेवा समाप्त की जा सकती थी। याचिकाकर्ता पर दर्ज मुकदमे चल रहे हैं, परंतु कोई सजा या आरोप सिद्ध नहीं हुआ है।
अतः अदालत ने पाया कि सेवा समाप्ति आदेश न तो अवैध है और न ही कलंककारी।
अंतिम निर्णय:
याचिका अस्वीकृत कर दी गई। अदालत ने स्पष्ट किया कि यह सेवा समाप्ति आदेश याचिकाकर्ता के भविष्य के किसी भी रोजगार को प्रभावित नहीं करेगा। कोई दंडात्मक टिप्पणी या निषेध इसमें नहीं है।
निष्कर्ष:
यह निर्णय स्पष्ट करता है कि संविदा पर कार्यरत सरकारी कर्मियों को सेवा समाप्ति के मामलों में नियमित सरकारी सेवकों जैसी सुरक्षा नहीं मिलती, खासकर जब सेवा अनुबंध स्पष्ट रूप से संस्था को यह अधिकार देता हो। साथ ही यह भी रेखांकित किया गया कि "कलंक" और "प्रेरणा" में अंतर होता है, और प्रत्येक बर्खास्तगी आदेश को स्वतः ही दंडात्मक नहीं माना जा सकता।
पूरा
फैसला पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें:
https://patnahighcourt.gov.in/viewjudgment/MTUjOTk3NSMyMDIyIzEjTg==-bO--ak1--ULYB6c38=
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