न्याय की तराजू: संदेह का लाभ और न्यायिक विवेक जब साक्ष्य की कमी और गवाही के विरोधाभास निर्दोषता को सिद्ध करते हैं


प्रकरण का परिचय

यह मामला पटना उच्च न्यायालय के समक्ष आपराधिक अपील संख्या 43/2016 के रूप में प्रस्तुत हुआ था। इस प्रकरण में प्रमोद चौधरी नामक व्यक्ति को निचली अदालत द्वारा भारतीय दंड संहिता की धारा 376/511 (बलात्कार का प्रयास) और POCSO अधिनियम की धारा 8 के तहत दोषी ठहराया गया था। माननीय न्यायाधीश जितेंद्र कुमार के समक्ष यह अपील 21 अक्टूबर 2024 को सुनी गई।

घटना का विवरण

घटना 7-8 अगस्त 2014 की रात की है, जब शेखपुरा जिले के बरबीघा थाना क्षेत्र के केवटी गांव में एक 15 वर्षीय बालिका अपने घर की छत पर अकेली सो रही थी। पीड़िता के अनुसार, रात के लगभग 1 बजे प्रमोद चौधरी (जो पड़ोसी था) छत पर आया और उसके पास बैठकर गलत इरादे से उसके पायजामे की डोरी खोलने का प्रयास किया। जब पीड़िता की नींद खुली तो उसने चिल्लाया, जिससे अभियुक्त वहां से भाग गया।

कानूनी प्रक्रिया

8 अगस्त 2014 को सुबह 5:30 बजे इस घटना की औपचारिक FIR दर्ज की गई। पुलिस जांच के बाद 31 अगस्त 2014 को अभियुक्त के विरुद्ध चार्जशीट दाखिल की गई। निचली अदालत में मुकदमे के दौरान 5 गवाहों की जांच हुई:

  1. PW-1: पीड़िता का चचेरा भाई
  2. PW-2: पीड़िता की भाभी
  3. PW-3: पीड़िता की मां
  4. PW-4: पीड़िता स्वयं (मुख्य गवाह)
  5. PW-5: जांच अधिकारी महानंद झा

निचली अदालत का फैसला

ट्रायल कोर्ट ने प्रमोद चौधरी को दोषी पाया और उसे निम्नलिखित सजा सुनाई:

  • भारतीय दंड संहिता की धारा 376/511 के तहत 10 वर्ष की सश्रम कारावास और 50,000 रुपये जुर्माना
  • POCSO अधिनियम की धारा 8 के तहत 5 वर्ष की सश्रम कारावास और 50,000 रुपये जुर्माना
  • जुर्माना न भरने पर प्रत्येक धारा के तहत 6-6 महीने अतिरिक्त कारावास

अपील के मुख्य बिंदु

अपीलकर्ता की दलीलें:

  1. कानूनी तर्क: अभियुक्त के वकील का तर्क था कि केवल पायजामे की डोरी खोलने का प्रयास बलात्कार का "प्रयास" नहीं माना जा सकता, यह केवल "तैयारी" है जो दंडनीय नहीं है।
  2. गवाही की विश्वसनीयता: पीड़िता की गवाही में गंभीर विरोधाभास हैं। उसने पहले कहा कि वह छत पर अकेली सो रही थी, लेकिन बाद में कहा कि उसकी मां और भाभी भी वहां थीं।
  3. पूर्व मामले: पीड़िता ने पहले भी राजेश चौधरी नामक व्यक्ति के विरुद्ध इसी प्रकार का मामला दर्ज कराया था, जो उसकी विश्वसनीयता पर सवाल खड़े करता है।

राज्य की दलीलें:

राज्य के वकील ने तर्क दिया कि अभियोग उचित संदेह से परे सिद्ध हो गया है और निचली अदालत का फैसला सही है।

उच्च न्यायालय का विश्लेषण

साक्ष्य की समीक्षा:

माननीय न्यायाधीश ने निम्नलिखित महत्वपूर्ण बिंदुओं पर ध्यान दिया:

  1. एकमात्र प्रत्यक्षदर्शी: केवल पीड़िता ही घटना की प्रत्यक्षदर्शी थी। अन्य गवाह केवल घटना के पूर्व और पश्चात की परिस्थितियों के गवाह थे।
  2. गवाही में विरोधाभास: पीड़िता ने पहले कहा कि वह अकेली सो रही थी, फिर कहा कि बारिश के कारण उसकी मां और भाभी नीचे चली गई थीं। यदि मौसम उनके लिए उपयुक्त नहीं था तो पीड़िता के लिए कैसे उपयुक्त था?
  3. समान मामले का इतिहास: पीड़िता द्वारा पूर्व में दूसरे व्यक्ति के विरुद्ध समान प्रकार का मामला दर्ज कराना चिंता का विषय है।

कानूनी विश्लेषण:

न्यायालय ने स्पष्ट किया कि:

  1. मानसिक अपराध बनाम वास्तविक अपराध: केवल डोरी खोलने का प्रयास बलात्कार करने की मानसिकता (mens rea) दर्शाता है, लेकिन केवल मानसिकता अपराध नहीं है।
  2. अपराध की श्रेणी: अधिकतम यह मामला भारतीय दंड संहिता की धारा 354 (मर्यादा भंग) के तहत आ सकता है, न कि बलात्कार के प्रयास के तहत।

न्यायालय का निर्णय और तर्क

संदेह का लाभ का सिद्धांत:

न्यायालय ने निम्नलिखित आधारों पर अपीलकर्ता को संदेह का लाभ दिया:

  1. गवाही की अविश्वसनीयता: पीड़िता की गवाही में स्पष्ट विरोधाभास और असंभावना
  2. एकमात्र गवाह: केवल पीड़िता ही प्रत्यक्षदर्शी होना और उसकी गवाही संदिग्ध होना
  3. पूर्व मामलों का इतिहास: समान प्रकृति के पूर्व मामले दर्ज कराना

न्यायिक सिद्धांत:

न्यायालय ने स्पष्ट किया कि आपराधिक न्याय व्यवस्था में "उचित संदेह से परे" सिद्ध करना आवश्यक है। जब गवाही में गंभीर विरोधाभास हों तो अभियुक्त को संदेह का लाभ मिलना चाहिए।

निर्णय का व्यापक प्रभाव

महिला सुरक्षा और न्याय का संतुलन:

यह मामला दिखाता है कि न्यायपालिका कैसे महिला सुरक्षा के महत्व को समझते हुए भी न्यायिक सिद्धांतों का पालन करती है। झूठे मामलों से निर्दोष व्यक्ति की सुरक्षा भी उतनी ही महत्वपूर्ण है।

साक्ष्य की गुणवत्ता का महत्व:

मामले से स्पष्ट होता है कि केवल आरोप लगाना पर्याप्त नहीं है, बल्कि विश्वसनीय और संगत साक्ष्य प्रस्तुत करना आवश्यक है।

अंतिम परिणाम

माननीय न्यायाधीश जितेंद्र कुमार ने 21 अक्टूबर 2024 को निम्नलिखित आदेश पारित किया:

  1. अपील स्वीकार: आपराधिक अपील स्वीकार की गई
  2. दोषमुक्ति: प्रमोद चौधरी को सभी आरोपों से दोषमुक्त किया गया
  3. जमानत दायित्व समाप्त: चूंकि अपीलकर्ता पहले से जमानत पर था, उसे जमानत के दायित्व से मुक्त किया गया

निष्कर्ष

यह मामला न्यायिक व्यवस्था की परिपक्वता को दर्शाता है, जहां न्यायाधीश ने भावनाओं में बहकर फैसला नहीं दिया, बल्कि कानूनी सिद्धांतों और साक्ष्यों के आधार पर निर्णय लिया। यह प्रकरण निम्नलिखित महत्वपूर्ण संदेश देता है:

  • न्याय केवल पीड़ित के लिए नहीं, बल्कि समाज के हर व्यक्ति के लिए होना चाहिए
  • झूठे आरोप उतने ही गंभीर हैं जितने कि वास्तविक अपराध
  • साक्ष्य की गुणवत्ता और विश्वसनीयता न्याय की आधारशिला है
  • संदेह का लाभ न्यायिक व्यवस्था का एक मौलिक सिद्धांत है

इस प्रकार, पटना उच्च न्यायालय का यह निर्णय न्यायिक संयम और कानूनी सिद्धांतों के पालन का एक उत्कृष्ट उदाहरण है।

 संपूर्ण न्यायादेश नीचे पढ़ें

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