परिचय
यह मामला एक सरकारी कर्मचारी गोपाल प्रसाद कुस्तवार से जुड़ा है, जिन पर बिहार राज्य विद्युत बोर्ड (BSEB) में कार्यरत रहते हुए वित्तीय अनियमितताओं का आरोप लगाकर अनुशासनात्मक कार्रवाई की गई थी। आरोप था कि उन्होंने उपभोक्ताओं की बकाया बिजली बिल राशि को अगले वित्तीय वर्ष में स्थानांतरित नहीं किया, जिससे बोर्ड को ₹1,30,484.18 का नुकसान हुआ। ट्रायल के बाद उन पर तीन वार्षिक वेतनवृद्धियाँ रोकने तथा फटकार (censure) की सजा दी गई।
गोपाल प्रसाद ने पटना उच्च न्यायालय में यह कहते हुए याचिका दायर की कि उनके खिलाफ आरोप गलत तथ्यों और बिना ठोस प्रमाण के लगाए गए थे। अंततः कोर्ट ने उनके पक्ष में फैसला देते हुए अनुशासनात्मक आदेश को रद्द कर दिया और जांच प्रक्रिया को दोबारा निष्पक्ष तरीके से शुरू करने का निर्देश दिया।
मामले की पृष्ठभूमि
🔹 पद: सहायक लेखाकार (Account Assistant)
🔹 कार्यालय: विद्युत आपूर्ति प्रमंडल (शहरी), गया
🔹 अवधि का विवाद: मार्च 1999 से अप्रैल 2000
🔹 मूल आरोप:
गोपाल प्रसाद पर आरोप था कि उन्होंने 19 उपभोक्ताओं के बिजली बिल की बकाया राशि अगले वर्ष में नहीं जोड़ी, जिससे बोर्ड को ₹1.3 लाख का नुकसान हुआ।
याचिकाकर्ता के तर्क
याचिकाकर्ता की ओर से अधिवक्ता कुमार रविश ने निम्नलिखित मुख्य बिंदुओं पर ज़ोर दिया:
-
गलत पोस्टिंग का दावा:
-
याचिकाकर्ता का कहना था कि वह उस समय साइकिल नं. 19 (बिलिंग यूनिट) के प्रभारी थे ही नहीं।
-
उनके अनुसार, वह 17 सितंबर 1999 से दिसंबर 1999 तक ही साइकिल 19A और 19B के प्रभारी थे।
-
उनके पहले वह साइकिल नं. 11 में कार्यरत थे और 21 सितंबर 1999 को ही कार्यभार सौंपा।
-
-
बोर्ड को कोई वास्तविक नुकसान नहीं:
-
बोर्ड के ऑडिटर कृष्ण देव पंडित ने स्वीकार किया कि सभी उपभोक्ताओं से बाद में पैसा वसूल कर लिया गया था।
-
इसलिए बोर्ड को कोई स्थायी आर्थिक हानि नहीं हुई।
-
-
बिना ठोस साक्ष्य के दंड:
-
ना तो स्पष्ट दस्तावेज दिए गए, ना ही पोस्टिंग की सटीक अवधि स्थापित की गई।
-
केवल एक पुराने पत्र (दिनांक 26.11.2005) के आधार पर आरोप लगाया गया।
-
-
न्यायिक प्रक्रिया में त्रुटि:
-
आरोपों की निष्पक्ष जांच नहीं हुई।
-
साक्ष्य अधूरे थे और निर्णय पूर्वग्रह से प्रेरित था।
-
बोर्ड (प्रति-पक्ष) का तर्क
बोर्ड की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता विनय कीर्ति सिंह ने दलील दी कि:
-
याचिकाकर्ता ने खुद यह स्वीकार किया है कि वह 1999 में साइकिल नं. 19 में कार्यरत थे।
-
उन्होंने यह नहीं सिद्ध किया कि वह मार्च 1999 से अप्रैल 2000 तक लगातार वहां तैनात नहीं थे।
-
विभागीय जांच में पूरा मौका दिया गया था।
-
बोर्ड के अनुसार, चूक के लिए गोपाल प्रसाद जिम्मेदार हैं और उन्होंने अनुशासनात्मक नियमों का उल्लंघन किया है।
न्यायालय का अवलोकन और विश्लेषण
माननीय न्यायमूर्ति पूर्णेंदु सिंह की अध्यक्षता वाली पीठ ने मामले की गहन समीक्षा की और निम्नलिखित बिंदुओं पर विचार किया:
1. मूल सवाल:
क्या गोपाल प्रसाद द्वारा किया गया कृत्य "misconduct" की श्रेणी में आता है?
न्यायालय ने 'misconduct' की परिभाषा देते हुए कहा:
“केवल लापरवाही, निर्णय में भूल या निर्दोष गलती को दंडनीय ‘misconduct’ नहीं कहा जा सकता।”
2. पोस्टिंग का विरोधाभास:
-
बोर्ड कहता है कि वह अप्रैल 1999 से अप्रैल 2000 तक साइकिल नं. 19 में तैनात थे।
-
जबकि याचिकाकर्ता ने स्पष्ट दस्तावेज (ऑफिस ऑर्डर नं. 365) पेश कर बताया कि उन्होंने 17 सितंबर 1999 से कार्यभार ग्रहण किया था।
-
कार्यभार हस्तांतरण पत्र (चार्ज रिपोर्ट) भी पेश किया गया, जिसमें उन्होंने 21.09.1999 को पूर्व साइकिल का कार्य सौंपा था।
3. साक्ष्य की कमी:
-
बोर्ड ने यह स्पष्ट करने के लिए कोई मजबूत दस्तावेज नहीं दिया कि याचिकाकर्ता पूरी अवधि में वहीं तैनात थे।
-
जांच अधिकारी ने भी कार्यालय आदेशों और हस्तांतरण पत्रों की समीक्षा नहीं की।
4. सुप्रीम कोर्ट के संदर्भ:
कोर्ट ने सुप्रीम कोर्ट के निर्णयों का हवाला दिया, जैसे:
-
United Bank of India vs. Biswanath Bhattacharjee (2022):
विभागीय कार्यवाही न्यायसंगत और पारदर्शी होनी चाहिए। -
State Bank of Bikaner & Jaipur vs. Nemi Chand (2011):
अगर फैसले किसी साक्ष्य पर आधारित नहीं हैं, तो कोर्ट दखल दे सकता है। -
Moni Shankar vs. Union of India (2008):
नैसर्गिक न्याय के सिद्धांतों का पालन ज़रूरी है।
अंतिम फैसला और आदेश
पटना हाईकोर्ट ने कहा कि:
“याचिकाकर्ता पर आरोप अस्पष्ट, विरोधाभासी और प्रमाणहीन हैं।
विभागीय अधिकारी और अपील प्राधिकारी द्वारा किया गया निर्णय कानूनी कसौटी पर खरा नहीं उतरता।”
इसलिए:
-
दंड आदेश (दिनांक 23.11.2011) और
-
अपील खारिज आदेश (दिनांक 02.03.2012) — दोनों को रद्द कर दिया गया।
विभागीय कार्रवाई पुनः शुरू करने का निर्देश:
-
मामला नए सिरे से निष्पक्ष जांच हेतु विभाग को लौटाया गया।
-
जांच बिहार सरकारी सेवक वर्गीकरण, नियंत्रण एवं अपील नियमावली, 2005 के तहत होनी चाहिए।
-
जांच से पहले याचिकाकर्ता को निलंबित (suspend) किया जाना आवश्यक है।
निष्कर्ष
यह फैसला न केवल एक सेवानिवृत्त सरकारी कर्मचारी को राहत देता है, बल्कि यह भी दर्शाता है कि बिना ठोस साक्ष्य और उचित प्रक्रिया के किसी भी कर्मचारी को दंडित नहीं किया जा सकता।
न्यायपालिका का यह निर्णय उन हजारों सरकारी कर्मचारियों के लिए मिसाल है, जो केवल काग़ज़ी अनियमितताओं और विभागीय लापरवाही के कारण मानसिक एवं आर्थिक उत्पीड़न झेलते हैं।
पूरा
फैसला पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें:
https://patnahighcourt.gov.in/viewjudgment/MTUjMTgxNjUjMjAxMiMxI04=-u0hg--ak1--81qofc=
0 Comments