संशोधन नहीं, न्याय चाहिए – पटना हाईकोर्ट ने बिना कारण संशोधन आदेश को किया रद्द

 


भूमिका

भारतीय न्याय प्रणाली में “कारण सहित आदेश” एक आवश्यक शर्त मानी जाती है। जब कोई न्यायिक अधिकारी कोई आदेश देता है, तो उसका आधार और तर्क स्पष्ट रूप से दर्ज किया जाना चाहिए। पटना हाईकोर्ट के न्यायमूर्ति अरुण कुमार झा द्वारा पारित निर्णय, सिविल मिक्सड जूरिडिक्शन केस नंबर 1032/2017 इस बात का जीवंत उदाहरण है कि कैसे निचली अदालत द्वारा बिना ठोस कारण के पारित आदेश को असंवैधानिक और अन्यायपूर्ण माना गया।

मामले की पृष्ठभूमि

  • याचिकाकर्ता: विजय कुमार सिंह, ग्राम फरिदपुर, वैशाली निवासी

  • प्रतिवादी संख्या 1: जयप्रकाश सिंह, हाजीपुर निवासी

  • मूल मुकदमा: टाइटल सूट संख्या 1134/2013, जिसमें वादी (जयप्रकाश सिंह) ने कुछ बिक्री विलेखों की रद्दीकरण की मांग की थी, जो प्रतिवादी प्रथम पक्ष ने द्वितीय पक्ष को की थी।

संशोधन याचिका का विवाद

वादी (प्रतिवादी संख्या 1) ने सिविल प्रक्रिया संहिता की आर्डर 6 रूल 17 के तहत 10 फरवरी 2017 को एक याचिका दाखिल की, जिसमें मूल वाद पत्र में निम्नलिखित संशोधन की मांग की गई:

  1. नया पता जोड़ना – वादी ने अपने वर्तमान निवास स्थान (मो. कृष्णापुरी, हाजीपुर) को शामिल करने की मांग की।

  2. खाता संख्या में सुधार – खाता संख्या 62 को हटाकर 88 जोड़ा जाए।

  3. भूमि कर ("लगान/मालगुजारी") जोड़ना

  4. यह जोड़ना कि प्रतिवादी द्वारा जो सर्वे ऑफिस का निर्णय प्रस्तुत किया गया, वह गलत है क्योंकि वादी ने कोई मामला न तो दायर किया और न ही वकील नियुक्त किया था।

  5. 1892 की कैडस्ट्रल सर्वे प्रविष्टि के आधार पर भूमि पर कब्जे का दावा।

  6. पैतृक नामों में सुधार – "रतन सिंह" की जगह "रतन महतो"।

  7. वाद पत्र में टाइपिंग की त्रुटियों को ठीक करना।

याचिकाकर्ता का विरोध: विलंबित एवं दुर्भावनापूर्ण संशोधन

विजय कुमार सिंह ने इस संशोधन का तीव्र विरोध किया और निम्नलिखित तर्क प्रस्तुत किए:

  • वादी ने यह संशोधन तब किया जब उनकी गवाही समाप्त हो चुकी थी और प्रतिवादी की गवाही प्रारंभ हो गई थी। यह जानबूझकर मुकदमे में देरी करने की कोशिश थी।

  • वादी को सभी तथ्यों की पहले से जानकारी थी, फिर भी उन्होंने पहले संशोधन नहीं मांगा।

  • पुराने पते की जगह नया पता जोड़ना जानबूझकर गुमराह करने वाला कृत्य प्रतीत होता है।

  • सुप्रीम कोर्ट के निर्णय (Basavaraj vs. Indira – 2024 (3) SCC 705) का हवाला दिया गया, जिसमें कहा गया है कि ट्रायल शुरू होने के बाद कोई भी संशोधन तभी स्वीकार्य होता है जब यह साबित हो कि पूर्ण परिश्रम के बावजूद संशोधन पहले नहीं किया जा सका।

  • निचली अदालत द्वारा संशोधन स्वीकार करते समय कोई कारण नहीं बताया गया, केवल इतना कहा कि “दस्तावेजों की समीक्षा की गई”।

प्रतिवादी (वादी पक्ष) का पक्ष

प्रतिवादी संख्या 1 (वादी) की ओर से प्रस्तुत वकील ने यह तर्क दिया कि:

  • मांगे गए सभी संशोधन साधारण प्रकृति के हैं, जिनसे मुकदमे की मूल प्रकृति में कोई बदलाव नहीं आता।

  • संशोधन केवल वादी का वर्तमान पता, खाता संख्या की टाइपिंग त्रुटि, पूर्वजों के नाम, और स्पष्ट स्पष्टीकरण हेतु है।

  • इनसे प्रतिवादी को कोई पूर्वाग्रह (prejudice) नहीं होगा।

पटना हाईकोर्ट का विश्लेषण और निर्णय

न्यायमूर्ति अरुण कुमार झा ने निम्नलिखित प्रमुख बिंदुओं पर गौर किया:

  1. निचली अदालत का आदेश "गैर-विवेचनात्मक" (non-speaking) था – उसमें संशोधन स्वीकार करने का कोई तर्क या आधार नहीं दर्शाया गया।

  2. केवल “दस्तावेजों को देखने” के आधार पर संशोधन याचिका को स्वीकार करना न्यायिक प्रक्रिया की आत्मा के खिलाफ है।

  3. सुप्रीम कोर्ट के निर्णयों (Raj Kishore Jha v. State of Bihar – AIR 2003 SC 4664) और (Kranti Associates v. Masood Ahmed – (2010) 9 SCC 496) में कहा गया है कि "कारण रहित आदेश, न्याय से इनकार के बराबर होता है।"

  4. अदालत ने स्पष्ट किया कि "कारण" न्यायिक आदेश की आत्मा है – चाहे वह कोई भी प्राधिकृत संस्था दे रही हो।

हाईकोर्ट का आदेश

  • निचली अदालत का दिनांक 02.03.2017 का आदेश रद्द किया गया।

  • मामला पुनः निचली अदालत को भेजा गया ताकि वह 10.02.2017 की संशोधन याचिका पर एक विस्तृत और तर्कयुक्त आदेश पारित करे।

  • यह कार्य एक माह के अंदर पूरा किया जाना चाहिए।

न्यायिक सिद्धांत जो स्थापित हुए

  1. संशोधन कोई अधिकार नहीं, बल्कि विशेष परिस्थिति में अनुमति है – खासकर जब ट्रायल शुरू हो चुका हो।

  2. न्यायिक आदेश में कारण देना अनिवार्य है – यह न केवल पारदर्शिता लाता है, बल्कि उच्च न्यायालयों द्वारा उसकी वैधता जांचने में सहायक होता है।

  3. ट्रायल की निष्पक्षता प्रभावित नहीं होनी चाहिए – यदि संशोधन से प्रतिवादी को वास्तविक नुकसान हो सकता है, तो उसका मूल्यांकन आवश्यक है।

  4. न्यायिक तंत्र में देरी करने के कृत्यों को न्यायालय हतोत्साहित करता है।

निष्कर्ष

यह निर्णय केवल तकनीकी प्रक्रिया की व्याख्या नहीं है, बल्कि यह भारतीय न्यायिक प्रणाली की बुनियादी नींव — "कारण और न्याय" — की पुष्टि करता है। इस फैसले से स्पष्ट होता है कि न्याय केवल आदेश देने से नहीं, बल्कि उचित कारण और विवेचन से मिलता है। पटना हाईकोर्ट का यह निर्णय विशेष रूप से निचली अदालतों को याद दिलाता है कि "बिना कारण का आदेश, बिना न्याय के आदेश के समान है।"

पूरा फैसला पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें:

https://patnahighcourt.gov.in/viewjudgment/NDQjMTAzMiMyMDE3IzEjTg==-GbVytgSgTsw=


0 Comments

WhatsApp Call