भूमिका
पटना हाईकोर्ट ने Civil Writ Jurisdiction Case No. 6316 of 2015 (तथा इससे सम्बद्ध CWJC Nos. 6444/2015 और 12124/2015) में एक ऐतिहासिक निर्णय देते हुए बिहार राज्य तथा ललित नारायण मिथिला विश्वविद्यालय (LNMU) के द्वारा किए गए भेदभावपूर्ण व्यवहार को असंवैधानिक और अन्यायपूर्ण घोषित किया। इस निर्णय से विश्वविद्यालय के 185 दैनिक वेतनभोगी कर्मचारियों को राहत मिली है, जिनकी सेवाओं को पहले तो नियमित कर दिया गया था, लेकिन उन्हें उनके प्रारंभिक नियुक्ति की तिथि से वेतन नहीं दिया गया था।
मामले की पृष्ठभूमि
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याचिकाकर्ता विश्वविद्यालय में Class III एवं Class IV पदों पर दैनिक वेतनभोगी के रूप में वर्षों तक कार्यरत रहे थे।
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06.06.2004 को इनकी सेवाएं नियमित की गई थीं, परंतु वेतन 01.01.2005 से देना तय हुआ।
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याचिकाकर्ता चाहते थे कि उन्हें उनके नियुक्ति की मूल तिथि से वेतन और पेंशन संबंधी लाभ दिए जाएं, जैसे कि कुछ अन्य 11 कर्मचारियों को कोर्ट के आदेश से पहले ही दिए जा चुके थे।
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विश्वविद्यालय ने 26.12.2009 को एक अधिसूचना जारी कर इन 185 कर्मचारियों को भी उनके प्रारंभिक नियुक्ति तिथि से नियमित मान लिया, लेकिन राज्य सरकार ने 29.01.2019 को एक पत्र द्वारा इस अधिसूचना को रद्द कर दिया।
मुख्य कानूनी बिंदु
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अनुच्छेद 14 का उल्लंघन: कुछ कर्मचारियों को लाभ देना और बाकियों को वंचित रखना भेदभावपूर्ण और संविधान के अनुच्छेद 14 के खिलाफ था।
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विश्वविद्यालय की स्वायत्तता: बिहार राज्य विश्वविद्यालय अधिनियम, 1976 के तहत विश्वविद्यालय को अपने कर्मचारियों के नियोजन और नियमितीकरण का अधिकार है।
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राज्य सरकार की अतिरेकता: विश्वविद्यालय द्वारा जारी अधिसूचना को राज्य सरकार द्वारा रद्द करना अधिकार क्षेत्र के बाहर था।
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राज्य मुकदमा नीति (Bihar State Litigation Policy, 2011): यह नीति कहती है कि यदि किसी आदेश से कुछ समान परिस्थितियों वाले कर्मियों को लाभ मिला है, तो सभी समान कर्मियों को भी वही लाभ दिया जाना चाहिए।
कोर्ट का निष्कर्ष
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अदालत ने माना कि याचिकाकर्ता उन्हीं पदों पर नियुक्त हुए थे, जिनकी सरकारी मंजूरी पहले से थी।
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विश्वविद्यालय ने पहले 11 कर्मियों को जो लाभ दिए थे, उन्हें रोकने के लिए राज्य सरकार ने SLP (Special Leave Petition) दायर की थी, जो सुप्रीम कोर्ट में खारिज हो गई थी।
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इसके पश्चात 185 अन्य कर्मचारियों को भी लाभ देने के लिए अधिसूचना (दिनांक 26.12.2009) जारी की गई थी।
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बाद में इसे रद्द करने वाली राज्य सरकार की अधिसूचना (दिनांक 29.01.2019) को अवैध घोषित किया गया।
कोर्ट के आदेश
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29.01.2019 की अधिसूचना को रद्द किया गया।
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सभी याचिकाकर्ताओं को उनके प्रारंभिक नियुक्ति की तिथि से दिसंबर 2004 तक का वेतन बकाया भुगतान करने का आदेश।
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यह सारा कार्य छह माह के अंदर पूरा किया जाए।
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यह भुगतान उनकी सेवा की जांच के बाद ही किया जाए कि उन्होंने वास्तव में उस अवधि में काम किया था या नहीं।
इस फैसले का महत्व
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समानता के अधिकार की पुनः स्थापना: यह निर्णय समान कार्य के लिए समान वेतन के सिद्धांत को बल देता है।
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संवैधानिक स्वायत्तता की रक्षा: यह फैसला विश्वविद्यालयों की प्रशासनिक स्वतंत्रता को बनाए रखने में सहायक है।
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न्यायिक आदेशों का पालन: यह दर्शाता है कि राज्य सरकारें भी कोर्ट के आदेशों के खिलाफ नहीं जा सकतीं, विशेष रूप से जब वे अंतिम रूप से तय हो चुके हों।
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वंचित कर्मियों के लिए आशा की किरण: इस निर्णय से अन्य ऐसे कर्मचारी भी न्याय की आशा कर सकते हैं जो समान परिस्थितियों में हैं।
निष्कर्ष
यह फैसला केवल कुछ कर्मियों के वेतन बकाया का मुद्दा नहीं था, बल्कि यह न्याय, समानता, और प्रशासनिक अनुशासन के सिद्धांतों का भी परीक्षण था। पटना हाईकोर्ट ने दिखा दिया कि न्यायिक निर्णयों की अवहेलना और भेदभावपूर्ण नीतियां किसी भी हाल में बर्दाश्त नहीं की जाएंगी। इस निर्णय ने न सिर्फ याचिकाकर्ताओं को न्याय दिलाया बल्कि भविष्य के लिए एक महत्वपूर्ण मिसाल भी कायम की।
पूरा
फैसला पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें:
https://patnahighcourt.gov.in/viewjudgment/MTUjNjMxNiMyMDE1IzEjTg==-zYqFB5bGtDA=
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